गत चुनाव के परिणाम ने साबित कर दिया है कि बिहार अब बदल रहा है. जो बिहार आजतक जात-पात के बूते पर चुनाव लड़ता था, पार्टियाँ अपना उम्मीदवार जातीय समीकरण के आधार पर तय करते थे, लेकिन परिणाम ने साफ़-साफ़ ये बता दिया कि अब बिहार बदल कर विहार(खूबसूरत जगह) बन रहा है. परन्तु, मैं यहाँ मीडिया वालो को भी ज़रा सा दोष देना चाहूँगा, क्यूंकि यही मीडिया कहती है, कि बिहार में जात-पात कि राजनीति होती है लेकिन जैसे ही राजनितिक पार्टियाँ अपना उम्मीदवार घोषित करती हैं तो अगले दिन समाचार पत्रों में उम्मीदवारों कि जातिवार सूची जारी कर देते हैं. इसमें हम किसे दोष देंगे, इन राजनेताओं को या फिर मीडिया को? इसबार वैसे भी बिहार में जात-पात से ऊपर उठ कर मतदान किया गया है, जिसका गवाह पूरा हिन्दुस्तान है. लेकिन मुझे तब बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक तरफ हम खुद को बदलने कि कोशिश कर रहे हैं वही दूसरी तरफ कई समाचार पत्रों ने जीते हुए विधायकों कि जातिवार सूची तक ज़ारी कर दी. खैर, बस अब हमें इस बात की ख़ुशी है कि हम अब बदल रहे हैं. पर इस अप्रत्याशित जीत के बाद नीतिश कुमार कि जिम्मेदारियां भी बहुत बढ़ गयी है. बिकास तो चारो तरफ दिख रहा है पर मेरे विचार में सम्पूर्ण विकसित करने में सबसे बड़ा योगदान बैंकों का होता है. लेकिन सर्वे के अनुसार बिहार में ऋण देने में बैंक सबसे पिछड़ी हुई है.
अगर हम रिपोर्ट देखें तो पाएंगे कि पूरे बिहार के बैंकों में बिहारवासियों ने करीब 101761 करोड़ रुपये जमा करवाया है लेकिन ऋण के नाम पर इन्हें करीब 31921 करोड़ ही मिले हैं. यहाँ मतलब बिलकुल साफ़ है कि, माहौल बदल रहा है, हालात एवं क़ानून व्यवस्था में सुधार हो रहा है पर बैंक के क्रिया-कलाप मे कोई सुधार नही दिख रहा है. हमने अपने प्रदेश के बैंक मे 101761 करोड़ रुपये जमा किया है पर ऋण के रूप मे हमे केवल 31921 करोड़ मिले हैं बांकी के करीब 70000 करोड़ रुपये यू ही या तो बैंक मे पड़े हुए हैं या ये बाहर के प्रदेशों मे जा रहे हैं. बिहार सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है की यहाँ के बैंक की साख जमा अनुपात अर्थात ऋण देने की दर मे बढ़ोतरी करना. अगर हम बिहार की तुलना अन्य प्रदेशों से करें तो पता चलेगा की ऋण देने मे हम कितने पीछे हैं.
राज्य जमा(करोड़) क़र्ज़(करोड़) प्रतिशत(क़र्ज़ का)
तमिलनाडु 251532 282604 113
आंध्रप्रदेश 245686 269760 109
राजस्थान 123918 103295 87
कर्नाटक 283571 226879 80
महाराष्ट्र 1693706 1313775 78
गुजरात 210738 143015 68
मध्यप्रदेश 134274 81023 60
बिहार 101762 31921 31
(सर्वे रिपोर्ट, सौजन्य- दैनिक हिन्दुस्तान)
अगर उपर्युक्त आंकड़ों को देखें तो हमें पता चलता है कि बैंक वालों के रवैये के कारण हम कितने पिछड़े हुए हैं और इस हालात में हमें अपने निकटम प्रदेश के आस-पास भी पहुंचना मुश्किल सा प्रतीत हो जाता है. अगर हम आंकड़ों को देखें तो पता चलेगा कि साख जमा अनुपात के मामले में बिहार देश के सभी छोटे और बड़े राज्यों से पिछड़ा हुआ है. इस मामले में महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक एवं गुजरात जैसे राज्य बिहार से दोगुने या उससे भी ज्यादा आगे हैं. मिजोरम ने 61 प्रतिशत, उड़ीसा ने 52 प्रतिशत, मणिपुर ने 50 प्रतिशत, सिक्किम ने 42 प्रतिशत और असम ने 40 प्रतिशत कि दर के साथ हमें पीछे छोड़ रखा है.
अब मेरा आग्रह बिहार के मुख्यमंत्री जी से है कि कृपया इन बातों पर ज़रा गौर फरमाएं जिससे बिहार में स्वरोजगार की संभावनाएं बढ़ेगी. जिस पलायन को रोकने के लिए सभी सरकारें सिर्फ कहने का प्रयास ही कर रही हैं, शायद वो हम रोक सकेंगे और जो समृद्ध बिहार केवल हमारी कल्पना में ही बसी हुई है उसे यकीन में बदल सकते हैं
शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010
शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010
बिहार चुनाव- हाय रे नेता तेरा रंग कैसा
आजकल मैं अपने गृह शहर पटना आया हुआ हूँ. यहाँ आ कर मैंने पाया की यहाँ चुनाव चर्चा अपने चरम पर है और देश की सभी मीडिया चाहे वो प्रिंट हो या इलेक्ट्रोनिक सभी बिलकुल मिनट मिनट की खबर जनता तक पहुंचा रहे हैं. आज सुबह ही मैंने जब समाचार पत्र देखा तो एक जबरदस्त न्यूज़ पर नज़र गयी कि "प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद्मश्री सी. पी. ठाकुर का इस्तीफा" और साथ ही उनका एक बयान था कि "मैं पार्टी के टिकट बटवारे से नाखुश हूँ. यहाँ भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं कि अवहेलना कि गयी है.मेरा बेटा विवेक ठाकुर भाजपा का समर्पित कार्यकर्ता है."
यह न्यूज़ पढने के ठीक बाद मेरी नज़र नीचे कोने में लिखी एक और न्यूज़ पर गयी जहाँ लिखा था कि " सी. पी. ठाकुर के पुत्र विवेक ठाकुर कांग्रेस से चुनाव लड़ेंगे." यह खबर पढ़ते ही मेरे मन में तभी से एक अंतर्द्वंद चल रहा है कि क्या आज के युग में "समर्पण और अवसरवादिता" एक दुसरे के पर्यायवाची हो गए हैं, क्या रामायण कि यह चौपाई सचमुच चरितार्थ हो गयी है कि. "प्रभुता में कछु दोष न गोसाईं" अर्थात समृद्ध व्यक्ति हमेशा सही होता है? एक तरफ अध्यक्ष महोदय कह रहे हैं कि बेटा पार्टी का समर्पित कार्यकर्ता है और दूसरी तरफ टिकट के लिए कांग्रेस से भी संपर्क साधे हुए हैं. अगर सी. पी. ठाकुर के व्यक्तित्व और उनका इतिहास देखें तो चिकित्सा के क्षेत्र में गोल्ड मेडल और कई ऐसे मेडल, अवार्ड लेने के बाद भारत सरकार से पद्मश्री अवार्ड से भी नवाज़े गए. पर आज का इनका बयान और क्रिया कलाप देख कर लगता है कि राजनीति अच्छे अच्छों का ईमान बदल देती है. शायद आज के युग में महात्मा गाँधी जी भी होते तो पुत्रवाद, परिवारवाद और अवसरवादी चरित्र से खुद को दूर नहीं रख पाते. क्यूंकि आज कि राजनीती है ही ऐसी. अब मुझे लग रहा है कि जे. पी. आन्दोलन के प्रणेता श्री जयप्रकाश नारायण को भगवान् ने पुत्र से वंचित इसलिए रखा था कि कहीं समय इनपर भी पुत्रमोह का दाग न लगा दे.
आज कल हर एक नेता समाज सेवा के थोथे दावे कर के अपने पुत्र और परिवार को आगे बढाते हुए समाजवाद कि बात करते हैं. इसका सबे बड़ा जीता जागता उदहारण हैं हमारे पूर्व केंद्रीय मंत्री श्री रामविलास पासवान. इनकी पार्टी लोजपा (लोकतांत्रिक जनशक्ति पार्टी) के अधिकतम उम्मीदवार इनके परिवार से ही हैं. कोई भाई है तो कोई समधी, कोई भतीजा है तो कोई दामाद. अब रामविलास जी के ननिहाल कि तरफ चलते हैं तो वहां पाएंगे कि इनके मामा श्री रामसेवक हजारी जिन्होंने नीतीश कुमार का दामन जद यु थाम के खुद विधान सभा चुनाव लड़ रहे हैं. साथ ही अपने पुत्र महेश्वर हजारी को सांसद बनाया और दुसरे पुत्र शशिभूषण हजारी के साथ अपनी बहु मंजू हजारी को भी चुनाव लडवा रहे हैं. परिवारवाद का विरोध करने वाले नीतीश कुमार इन्हें अपना मौन समर्थन दिए हुए हैं. लालू प्रसाद के तरफ चलें तो वहां भी वही हाल है. अब तो उन्होंने अपने बेटे को अगला उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया है. कैलाशपति मिश्रा का तो जातिवाद जग जाहिर ही है. क्यूंकि जब 1990 में पार्टी के अंतर्कलह के कारण रातों रात पार्टी अध्यक्ष पद से इन्दर सिंह नामधारी को हटा कर कैलाशपति मिश्रा को अध्यक्ष बनाया गया था तो, कैलाशपति मिश्र ने नामधारी के द्वारा जारी किये गए उम्मीदवारों के लिस्ट को बदल कर नयी लिस्ट ज़ारी कि. जिसमे से इन्होने नविन किशोरे सिन्हा और नन्द किशोर यादव जैसे लगातार जितने वाले प्रत्याशी को हटा कर अपने ख़ास लोगों को टिकट दिया था. वैसे कांग्रेस तो परिवारवाद के परंपरा कि जननी ही मानी जाती है.
ये तो सिर्फ एक बानगी है. अगर मैं पूरा व्योरा देने बैठ जाऊंगा तो शायद पन्नों कि कमी के साथ स्याही भी कम पड़ जायेगा. यहाँ का हर नेता समाजवाद का जीता जागता उदाहरण बन रहा है. आज के सन्दर्भ में मेरी परिभाषा इस समाजवाद के लिए कुछ और ही है. असल में ये है समाज-बाद, अर्थात हम पहले समाज बाद में. अब यहाँ सवाल यह आता है कि मतदाता क्या करे? ये शायद बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है. क्यूंकि हम आम मतदाता के लिए यह असमंजस का विषय है कि हम बाहुबलियों से किनारा करें या इस परिवारवाद से. मेरी समझ से अब वक़्त आ गया है कि एक वोट में कितनी शक्ति है ये जानने का और इन नेताओं को बाहुबलियों और परिवारवाद की राजनीती का सबक सिखाने का. जिससे हम इन राजनेताओं का मोहरा न बने और सुसंस्कृत देश और प्रदेश का निर्माण कर सकें.
यह न्यूज़ पढने के ठीक बाद मेरी नज़र नीचे कोने में लिखी एक और न्यूज़ पर गयी जहाँ लिखा था कि " सी. पी. ठाकुर के पुत्र विवेक ठाकुर कांग्रेस से चुनाव लड़ेंगे." यह खबर पढ़ते ही मेरे मन में तभी से एक अंतर्द्वंद चल रहा है कि क्या आज के युग में "समर्पण और अवसरवादिता" एक दुसरे के पर्यायवाची हो गए हैं, क्या रामायण कि यह चौपाई सचमुच चरितार्थ हो गयी है कि. "प्रभुता में कछु दोष न गोसाईं" अर्थात समृद्ध व्यक्ति हमेशा सही होता है? एक तरफ अध्यक्ष महोदय कह रहे हैं कि बेटा पार्टी का समर्पित कार्यकर्ता है और दूसरी तरफ टिकट के लिए कांग्रेस से भी संपर्क साधे हुए हैं. अगर सी. पी. ठाकुर के व्यक्तित्व और उनका इतिहास देखें तो चिकित्सा के क्षेत्र में गोल्ड मेडल और कई ऐसे मेडल, अवार्ड लेने के बाद भारत सरकार से पद्मश्री अवार्ड से भी नवाज़े गए. पर आज का इनका बयान और क्रिया कलाप देख कर लगता है कि राजनीति अच्छे अच्छों का ईमान बदल देती है. शायद आज के युग में महात्मा गाँधी जी भी होते तो पुत्रवाद, परिवारवाद और अवसरवादी चरित्र से खुद को दूर नहीं रख पाते. क्यूंकि आज कि राजनीती है ही ऐसी. अब मुझे लग रहा है कि जे. पी. आन्दोलन के प्रणेता श्री जयप्रकाश नारायण को भगवान् ने पुत्र से वंचित इसलिए रखा था कि कहीं समय इनपर भी पुत्रमोह का दाग न लगा दे.
आज कल हर एक नेता समाज सेवा के थोथे दावे कर के अपने पुत्र और परिवार को आगे बढाते हुए समाजवाद कि बात करते हैं. इसका सबे बड़ा जीता जागता उदहारण हैं हमारे पूर्व केंद्रीय मंत्री श्री रामविलास पासवान. इनकी पार्टी लोजपा (लोकतांत्रिक जनशक्ति पार्टी) के अधिकतम उम्मीदवार इनके परिवार से ही हैं. कोई भाई है तो कोई समधी, कोई भतीजा है तो कोई दामाद. अब रामविलास जी के ननिहाल कि तरफ चलते हैं तो वहां पाएंगे कि इनके मामा श्री रामसेवक हजारी जिन्होंने नीतीश कुमार का दामन जद यु थाम के खुद विधान सभा चुनाव लड़ रहे हैं. साथ ही अपने पुत्र महेश्वर हजारी को सांसद बनाया और दुसरे पुत्र शशिभूषण हजारी के साथ अपनी बहु मंजू हजारी को भी चुनाव लडवा रहे हैं. परिवारवाद का विरोध करने वाले नीतीश कुमार इन्हें अपना मौन समर्थन दिए हुए हैं. लालू प्रसाद के तरफ चलें तो वहां भी वही हाल है. अब तो उन्होंने अपने बेटे को अगला उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया है. कैलाशपति मिश्रा का तो जातिवाद जग जाहिर ही है. क्यूंकि जब 1990 में पार्टी के अंतर्कलह के कारण रातों रात पार्टी अध्यक्ष पद से इन्दर सिंह नामधारी को हटा कर कैलाशपति मिश्रा को अध्यक्ष बनाया गया था तो, कैलाशपति मिश्र ने नामधारी के द्वारा जारी किये गए उम्मीदवारों के लिस्ट को बदल कर नयी लिस्ट ज़ारी कि. जिसमे से इन्होने नविन किशोरे सिन्हा और नन्द किशोर यादव जैसे लगातार जितने वाले प्रत्याशी को हटा कर अपने ख़ास लोगों को टिकट दिया था. वैसे कांग्रेस तो परिवारवाद के परंपरा कि जननी ही मानी जाती है.
ये तो सिर्फ एक बानगी है. अगर मैं पूरा व्योरा देने बैठ जाऊंगा तो शायद पन्नों कि कमी के साथ स्याही भी कम पड़ जायेगा. यहाँ का हर नेता समाजवाद का जीता जागता उदाहरण बन रहा है. आज के सन्दर्भ में मेरी परिभाषा इस समाजवाद के लिए कुछ और ही है. असल में ये है समाज-बाद, अर्थात हम पहले समाज बाद में. अब यहाँ सवाल यह आता है कि मतदाता क्या करे? ये शायद बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है. क्यूंकि हम आम मतदाता के लिए यह असमंजस का विषय है कि हम बाहुबलियों से किनारा करें या इस परिवारवाद से. मेरी समझ से अब वक़्त आ गया है कि एक वोट में कितनी शक्ति है ये जानने का और इन नेताओं को बाहुबलियों और परिवारवाद की राजनीती का सबक सिखाने का. जिससे हम इन राजनेताओं का मोहरा न बने और सुसंस्कृत देश और प्रदेश का निर्माण कर सकें.
मंगलवार, 31 अगस्त 2010
नक्सली कौन...?
आज सुबह मैं बड़ी मीठी नींद में सोया हुआ था कि मेरे फ़ोन के घंटी बज उठी. मुझे बड़ा गुस्सा आया क्यूंकि बीती रात मैं देर से सोया था. बड़े अनमने ढंग से मैंने फ़ोन उठाया तो पता चला की फ़ोन मेरे पिता जी का था. आधी नींद में ही मैं उनसे बात कर रहा था. पर पिता जी ने एक ऐसा समाचार सुनाया कि मेरे बिलकुल ही होश उड़ गए और मेरी नींद कहाँ चली गयी मुझे पता ही नहीं चला. अब मैं उस समय से उठ कर आत्मंथन में लगा हुआ हूँ कि ये क्या हो रहा है. जो भी समाचार मुझे मेरे पिता जी ने सुबह सुबह दिया उसके बारे में सोच कर समझ नहीं आ रहा है कि ये दोष किसे दूं मैं.
असल में हमारे एक पारिवारिक मित्र हैं जो मेरे पिता जी के साथ स्कूल में पढ़ते थे. इनके परिवार के साथ हमारा बड़ा ही घनिष्ठ सम्बन्ध है. आपको जैसा कि ज्ञात होगा कि गत दिनों बिहार के लखीसराय जिले में नक्सलियों की पुलिस के साथ जबरदस्त मुठभेड़ हुई थी, जिसमे सात पुलिसकर्मी शहीद हो गए थे और कई पुलिसकर्मियों को उन्होंने बंधक बना लिया है. उन अपहृत लोगों में मेरे पिता जी के दोस्त के दामाद भी हैं, जो लखीसराय के किसी थाने में कार्यरत थे.
जब से ये खबर मेरे कानो में आई है मैं यही सोच रहा हूँ कि ये क्या हो रहा है. इस घटना के करीब 2 दिन हो चुके हैं लेकिन इनलोगों का कोई पता भी नहीं है कि ये लोग कहाँ हैं. नक्सलियों ने इनके साथ किया क्या है. ये जिंदा भी हैं ये मर गए. बस इन 2 दिनों में सरकार से इनके परिजनों को एक ही चीज़ मिल रही है और वो है 'भरोसा', इसके अलावा सरकार इन मामूली अधिकारियों या आम आदमी के लिए कुछ नहीं कर सकती. क्यूंकि ये किसी गृहमंत्री जी के पुत्री नहीं है, ये एक मामूली से आम आदमी है. अगर कल इनके मरने कि भी खबर आ जाये तो सरकारी खजाने से 10 लाख की रकम दे कर सरकार सोचेगी कि हमारा काम हो गया. क्या यही इन्साफ है?
ये नक्सली दिन दहाड़े हमारी हत्याएं करते रहे पर हमारे केंद्रीय मंत्री समझते हैं कि वो भी इंसान हैं इसलिए इनसे बात-चीत करके मामला सुलझाएं. ये राजनेता ज़रा सोचें कि, जितने भी अधिकारी अपहृत हैं, उनके घरों का क्या माहौल होगा अभी? लेकिन ये क्यूँ सोचें, इन्हें क्या फर्क पड़ता है? इनकी राजनीति तो चमकनी चाहिए बस. जहाँ तक मुझे पता है कि जिस क्षेत्र में ये घटना हुई है उसके बारे में ख़ुफ़िया विभाग पहले ही रिपोर्ट दे चूका था कि यहाँ नक्सली कैंप चल रहा है और आशंका जताते हुए राज्य मुख्यालय को भी सतर्क किया गया था. पर शिथिल प्रशासन पर भारी पड़े नक्सलियों ने खून की होली खेलकर प्रशासन को उसकी औकाद बता दी. महत्वपूर्ण बात यह है कि हाल के दिनों में सरकार ने लखीसराय जिले को नक्सल प्रभावित घोषित किया है लेकिन इस जिले में नक्सलियों से लड़ने के लिए न तो संसाधन उपलब्ध है न पुलिस बल. जहाँ नक्सली इस मुठभेड़ के दौरान 100 से अधिक संख्यां में थे और साथ ही नक्सली एल.एम.जी. और ए.के.47 जैसे हथियारों से हमले कर रहे थे पर हमारे पुलिसबल के पास कौन से हथियार होते हैं? मेरा तो सरकार से बड़ा ही सीधा सवाल है कि जब ख़ुफ़िया विभाग कि रिपोर्ट इन जगहों के बारे में आ चुकी थी तो पूर्ण सुविधाएँ हमारे जवानों को क्यूँ नहीं मिली थी, क्यूँ उन्हें भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया था?
कुछ दिनों पहले हमारी केंद्रीय मंत्री ममता बनर्जी ने नक्सल के समर्थन में बयान देते हुए कहा है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है. साथ ही इनके समर्थन में हमारे एक और केंद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी का भी बयान आया है. क्या ये कुछ दिनों पहले CRPF पर हुआ नक्सली हमला भूल गए. जिसमे हमारे अनगिनत जवान मौत के घात उतार दिए गए. ज़रा हमारे मंत्रीगण बयान देने के पहले सोचें कि उस हमले में शहीद हुए जवानों के परिवार पर क्या बिता होगा यह सब सुनकर. वो यही सोच रहे होंगे कि "जिसने इनके घर का चिराग बुझा दिया ये सरकार उसी को बचाने में लगी है" और इधर इन पुलिस पदाधिकारियों के अपहरण हुए करीब दो दिन से भी ज्यादा हो चुके हैं, पर अभी तक हमारे माननीय मुख्यमंत्री जी का कोई बयान नहीं आया है. जबकि ये जांबाज़ पुलिस पदाधिकारी अपनी जान पर खेल कर इन नक्सलियों से लोहा लेने गए थे, ताकि क्षेत्र में शान्ति व्यवस्था कायम रह सके. इनके परिवार में कोहराम मचा हुआ है. इनलोगों के आंसू आँखों से सूख ही नहीं रहे हैं. पर सरकार क्या कर रही है कुछ पता नहीं चल रहा है. अब मुझे ऐसा लग रहा है कि सरकार ही अब नक्सालियों जैसी हरकत करने लगा है. अब तो सवाल ये आ गया है कि असल में नक्सली है कौन, ये जंगल में छिपे लोग या फिर सरेआम खादी पहन कर घुमने वाले ये नेता जो नक्सलियों का समर्थन करते हैं? अब सच बताऊँ तो मेरा विश्वास उठ चूका है इन मंत्रियों और सरकार से. आजतक नक्सलियों के समर्थन में बोलने वाले इन मंत्रियों का इस मामले में कोई बयान क्यूँ नहीं आ रहा है? इधर बिहार के मुख्यमंत्री जी भी चुप्पी साधे बैठे हुए हैं. इसलिए मैं इनलोगों कि कुशलता कि कामना ईश्वर से करता हूँ और इनके सकुशल वापसी कि दुआएं मांगता हूँ.
असल में हमारे एक पारिवारिक मित्र हैं जो मेरे पिता जी के साथ स्कूल में पढ़ते थे. इनके परिवार के साथ हमारा बड़ा ही घनिष्ठ सम्बन्ध है. आपको जैसा कि ज्ञात होगा कि गत दिनों बिहार के लखीसराय जिले में नक्सलियों की पुलिस के साथ जबरदस्त मुठभेड़ हुई थी, जिसमे सात पुलिसकर्मी शहीद हो गए थे और कई पुलिसकर्मियों को उन्होंने बंधक बना लिया है. उन अपहृत लोगों में मेरे पिता जी के दोस्त के दामाद भी हैं, जो लखीसराय के किसी थाने में कार्यरत थे.
जब से ये खबर मेरे कानो में आई है मैं यही सोच रहा हूँ कि ये क्या हो रहा है. इस घटना के करीब 2 दिन हो चुके हैं लेकिन इनलोगों का कोई पता भी नहीं है कि ये लोग कहाँ हैं. नक्सलियों ने इनके साथ किया क्या है. ये जिंदा भी हैं ये मर गए. बस इन 2 दिनों में सरकार से इनके परिजनों को एक ही चीज़ मिल रही है और वो है 'भरोसा', इसके अलावा सरकार इन मामूली अधिकारियों या आम आदमी के लिए कुछ नहीं कर सकती. क्यूंकि ये किसी गृहमंत्री जी के पुत्री नहीं है, ये एक मामूली से आम आदमी है. अगर कल इनके मरने कि भी खबर आ जाये तो सरकारी खजाने से 10 लाख की रकम दे कर सरकार सोचेगी कि हमारा काम हो गया. क्या यही इन्साफ है?
ये नक्सली दिन दहाड़े हमारी हत्याएं करते रहे पर हमारे केंद्रीय मंत्री समझते हैं कि वो भी इंसान हैं इसलिए इनसे बात-चीत करके मामला सुलझाएं. ये राजनेता ज़रा सोचें कि, जितने भी अधिकारी अपहृत हैं, उनके घरों का क्या माहौल होगा अभी? लेकिन ये क्यूँ सोचें, इन्हें क्या फर्क पड़ता है? इनकी राजनीति तो चमकनी चाहिए बस. जहाँ तक मुझे पता है कि जिस क्षेत्र में ये घटना हुई है उसके बारे में ख़ुफ़िया विभाग पहले ही रिपोर्ट दे चूका था कि यहाँ नक्सली कैंप चल रहा है और आशंका जताते हुए राज्य मुख्यालय को भी सतर्क किया गया था. पर शिथिल प्रशासन पर भारी पड़े नक्सलियों ने खून की होली खेलकर प्रशासन को उसकी औकाद बता दी. महत्वपूर्ण बात यह है कि हाल के दिनों में सरकार ने लखीसराय जिले को नक्सल प्रभावित घोषित किया है लेकिन इस जिले में नक्सलियों से लड़ने के लिए न तो संसाधन उपलब्ध है न पुलिस बल. जहाँ नक्सली इस मुठभेड़ के दौरान 100 से अधिक संख्यां में थे और साथ ही नक्सली एल.एम.जी. और ए.के.47 जैसे हथियारों से हमले कर रहे थे पर हमारे पुलिसबल के पास कौन से हथियार होते हैं? मेरा तो सरकार से बड़ा ही सीधा सवाल है कि जब ख़ुफ़िया विभाग कि रिपोर्ट इन जगहों के बारे में आ चुकी थी तो पूर्ण सुविधाएँ हमारे जवानों को क्यूँ नहीं मिली थी, क्यूँ उन्हें भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया था?
कुछ दिनों पहले हमारी केंद्रीय मंत्री ममता बनर्जी ने नक्सल के समर्थन में बयान देते हुए कहा है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है. साथ ही इनके समर्थन में हमारे एक और केंद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी का भी बयान आया है. क्या ये कुछ दिनों पहले CRPF पर हुआ नक्सली हमला भूल गए. जिसमे हमारे अनगिनत जवान मौत के घात उतार दिए गए. ज़रा हमारे मंत्रीगण बयान देने के पहले सोचें कि उस हमले में शहीद हुए जवानों के परिवार पर क्या बिता होगा यह सब सुनकर. वो यही सोच रहे होंगे कि "जिसने इनके घर का चिराग बुझा दिया ये सरकार उसी को बचाने में लगी है" और इधर इन पुलिस पदाधिकारियों के अपहरण हुए करीब दो दिन से भी ज्यादा हो चुके हैं, पर अभी तक हमारे माननीय मुख्यमंत्री जी का कोई बयान नहीं आया है. जबकि ये जांबाज़ पुलिस पदाधिकारी अपनी जान पर खेल कर इन नक्सलियों से लोहा लेने गए थे, ताकि क्षेत्र में शान्ति व्यवस्था कायम रह सके. इनके परिवार में कोहराम मचा हुआ है. इनलोगों के आंसू आँखों से सूख ही नहीं रहे हैं. पर सरकार क्या कर रही है कुछ पता नहीं चल रहा है. अब मुझे ऐसा लग रहा है कि सरकार ही अब नक्सालियों जैसी हरकत करने लगा है. अब तो सवाल ये आ गया है कि असल में नक्सली है कौन, ये जंगल में छिपे लोग या फिर सरेआम खादी पहन कर घुमने वाले ये नेता जो नक्सलियों का समर्थन करते हैं? अब सच बताऊँ तो मेरा विश्वास उठ चूका है इन मंत्रियों और सरकार से. आजतक नक्सलियों के समर्थन में बोलने वाले इन मंत्रियों का इस मामले में कोई बयान क्यूँ नहीं आ रहा है? इधर बिहार के मुख्यमंत्री जी भी चुप्पी साधे बैठे हुए हैं. इसलिए मैं इनलोगों कि कुशलता कि कामना ईश्वर से करता हूँ और इनके सकुशल वापसी कि दुआएं मांगता हूँ.
शनिवार, 10 अप्रैल 2010
महिला अपराधों की राजधानी "दिल्ली"
आज पता नहीं क्यूँ मुझे अपने देश की राजधानी का ख्याल मेरे मन में आया. असल में समाचार पत्रों में कुछ दिनों से महिलाओं पर हो रहे अत्याचार से सम्बंधित ख़बरें आ रही थीं. मैं आपको ज़रा याद दिलाना चाहता हूँ ये दिल्ली, उसी देश की राजधानी है जिसे हम माता कह के खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं. बड़े शान से हम कहते हैं की "भारत हमारी माता है". आज हमारे देश के लिए एक और गौरव की बात ये है की हमारी भारत माता की 'राष्ट्रपति' वो भी महिला हैं. साथ ही हमारे देश के सरकार की बागडोर भी एक सशक्त महिला ने ही थाम रखी है और इस देश की राजधानी है, हमारी प्यारी दिल्ली. अब एक और संयोग देखिये कि दिल्ली प्रदेश कि जो मुखिया हैं वो भी 'महिला' ही हैं और तो और दिल्ली शहर की मेयर भी एक महिला ही हैं. क्या अजब संयोग है. मेरे विचार में शायद संसार का कोई भी देश ऐसा नहीं होगा जहाँ महिलाओं का इतना सम्मान होता हो और जहाँ लगातार उच्च पदस्थ सिर्फ महिलाएं ही हों. लेकिन इन सबों का वास दिल्ली में होते हुए भी, दिल्ली में महिलाओं की स्थिति क्या है?
आंकडें कहते हैं कि इस देश का महिलाओं के लिए दिल्ली सबसे असुरक्षित शहर है. हाल ही में नेशनल क्राइम ब्यूरो का सर्वे कहता है कि महिलाओं पर होने वाले अत्याचार में दिल्ली का पहला स्थान है. मुझे तो सोच कर लगता है कि 'वाह रे देश कि विडम्बना' महिलाओं के देश में, महिलाओं के राज्य में और महिलाओं के शहर में 'बेचारी महिला' ही असुरक्षित हैं. शायद ये राजनीति के गिरते स्तर की पहचान है. अगर हम सामान्य अपराध में सर्वे रिपोर्ट देखेंगे तो दिल्ली इसमें पहले पांच शहरों में शान से खड़ा है पर महिला अत्याचार में सबसे अव्वल है.
अब ज़रा हम अगर आंकड़ों पर गौर करें तो हमें पता चलेगा की असल में हमारी दिल्ली क्या है. कुछ दिनों पहले किये गए 35 बड़े शहरों में महिला अपराध के मामले में दिल्ली सबसे आगे है. अगर 35 शहरों को मिला कर महिला अत्याचार 14.2% है प्रतिलाख कि आबादी में तो, दिल्ली में ये प्रतिशत 27.6% प्रतिलाख में है. इसका मतलब साफ़ है की बांकी 35 शहरों के संयुक्त प्रतिशत का दोगुना. ये सर्वे उन 35 बड़े शहरों में किया गया है जिनकी आबादी 10 लाख से ज्यादा है. अगर बलात्कार के केसों को देखें तो आपको पता चलेगा कि, अकेले दिल्ली में 562 केस हैं जबकि 1693 सभी शहरों को मिला कर. मतलब करीब एक तिहाई केस दिल्ली में ही हुए हैं. महिलाओं के अपहरण के 2409 केसों में 900 केस दिल्ली में हुए हैं, जो की सम्पूर्ण आंकड़ों का 37.4% अकेला दिल्ली में है. दहेज़ हत्या का मामला अगर देखें तो 19% दिल्ली में हुए है बांकी 35 शहरों के मुकाबले. उपर्युक्त सभी आंकड़े भारत के सिर्फ 35 बड़े शहरों में संयुक्त रूप से किया गया है जिनकी आबादी 10 लाख से ऊपर थी.
अगर मैं इस तरह से आंकडें और केसों को विस्तार से आपको बताना शुरू कर दूंगा तो शायद मैं लिखता रहूँगा पर मेरे शब्द ख़त्म नहीं होंगे. इसलिए आंकड़ों को यही विराम देते हुए बस मैं ये कहना चाहता हूँ कि, कब ये स्वार्थी राजनेता अब तो राजनेत्री भी कहना अनुचित नहीं होगा. क्यूंकि उच्च पद पर विराजमान तो है ही और राजनीति में भी बड़ी संख्या में आ रही हैं. पर ये लोग कब स्वार्थ से ऊपर उठ कर काम करना शुरू करेंगे. मैं इन सभी महिला प्रशासकों से पूछना चाहता हूँ कि क्यूँ आप सबों के उच्च पद पर विराजमान रहने पर भी आज कोई भी महिलाएं बाहर निकलने से डरती है, क्यूँ दिन ब दिन इनके ऊपर अत्याचार बढ़ते ही जा रहे हैं, सरकार क्यूँ नहीं इन बातों के ऊपर ठोस कदम उठाती है? सवाल बहुत हैं पर जवाब इनके पास नहीं है. क्यूंकि ये भी सिर्फ राजनीति ही जानते हैं.
अभी संसद में हाल ही में बवाल हुआ था, महिला आरक्षण पर. मैं यहाँ यही पूछना चाहता हूँ किन आरक्षण कि बात कर रही हैं ये महिला राजनेत्रियाँ या फिर ये सरकार? मेरे हिसाब से महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचार में तो आरक्षण दिलवा दिया इन महिला प्रशासकों ने और इनके कुशासन ने दिल्ली को बनवा दिया देश का सबसे असुरक्षित शहर महिलाओं के लिए. सबसे पहले तो महिलाओं का हितेषी बनने का ढोंग छोड़ दें जो 'महिला आरक्षण' दिखा कर, कर रहे हैं. अगर इन उच्च पदस्थ महिलाओं को ज़रा भी महिलाओं के प्रति दर्द इनके दिल में है तो दिल्ली को ही नहीं पूरे भारतवर्ष को महिलाओं पर हो रहे अत्याचार से मुक्त करें.
मेरा निवेदन है इन सबों से एक बार फिर कि, गन्दी राजनीति से ऊपर उठ कर इन आम जनता के बारे में सोच लें. अगर सच में आपको महिलाओं को आगे लाना है, उन्हें मुख्य धारा में सरीक करना है और इन्हें सशक्त बनाना है तो इन्हें पूर्ण सुरक्षा का अहसास दिलाएं. फिर मेरे विचार में इन्हें किसी आरक्षण कि ज़रूरत नहीं पड़ेगी. पूर्ण सुरक्षा का अहसास ही इनके लिए सबसे बड़ा आरक्षण होगा और पुनः हम गौरवान्वित होकर कह सकेंगे कि "भारत हमारी माता है"
आंकडें कहते हैं कि इस देश का महिलाओं के लिए दिल्ली सबसे असुरक्षित शहर है. हाल ही में नेशनल क्राइम ब्यूरो का सर्वे कहता है कि महिलाओं पर होने वाले अत्याचार में दिल्ली का पहला स्थान है. मुझे तो सोच कर लगता है कि 'वाह रे देश कि विडम्बना' महिलाओं के देश में, महिलाओं के राज्य में और महिलाओं के शहर में 'बेचारी महिला' ही असुरक्षित हैं. शायद ये राजनीति के गिरते स्तर की पहचान है. अगर हम सामान्य अपराध में सर्वे रिपोर्ट देखेंगे तो दिल्ली इसमें पहले पांच शहरों में शान से खड़ा है पर महिला अत्याचार में सबसे अव्वल है.
अब ज़रा हम अगर आंकड़ों पर गौर करें तो हमें पता चलेगा की असल में हमारी दिल्ली क्या है. कुछ दिनों पहले किये गए 35 बड़े शहरों में महिला अपराध के मामले में दिल्ली सबसे आगे है. अगर 35 शहरों को मिला कर महिला अत्याचार 14.2% है प्रतिलाख कि आबादी में तो, दिल्ली में ये प्रतिशत 27.6% प्रतिलाख में है. इसका मतलब साफ़ है की बांकी 35 शहरों के संयुक्त प्रतिशत का दोगुना. ये सर्वे उन 35 बड़े शहरों में किया गया है जिनकी आबादी 10 लाख से ज्यादा है. अगर बलात्कार के केसों को देखें तो आपको पता चलेगा कि, अकेले दिल्ली में 562 केस हैं जबकि 1693 सभी शहरों को मिला कर. मतलब करीब एक तिहाई केस दिल्ली में ही हुए हैं. महिलाओं के अपहरण के 2409 केसों में 900 केस दिल्ली में हुए हैं, जो की सम्पूर्ण आंकड़ों का 37.4% अकेला दिल्ली में है. दहेज़ हत्या का मामला अगर देखें तो 19% दिल्ली में हुए है बांकी 35 शहरों के मुकाबले. उपर्युक्त सभी आंकड़े भारत के सिर्फ 35 बड़े शहरों में संयुक्त रूप से किया गया है जिनकी आबादी 10 लाख से ऊपर थी.
अगर मैं इस तरह से आंकडें और केसों को विस्तार से आपको बताना शुरू कर दूंगा तो शायद मैं लिखता रहूँगा पर मेरे शब्द ख़त्म नहीं होंगे. इसलिए आंकड़ों को यही विराम देते हुए बस मैं ये कहना चाहता हूँ कि, कब ये स्वार्थी राजनेता अब तो राजनेत्री भी कहना अनुचित नहीं होगा. क्यूंकि उच्च पद पर विराजमान तो है ही और राजनीति में भी बड़ी संख्या में आ रही हैं. पर ये लोग कब स्वार्थ से ऊपर उठ कर काम करना शुरू करेंगे. मैं इन सभी महिला प्रशासकों से पूछना चाहता हूँ कि क्यूँ आप सबों के उच्च पद पर विराजमान रहने पर भी आज कोई भी महिलाएं बाहर निकलने से डरती है, क्यूँ दिन ब दिन इनके ऊपर अत्याचार बढ़ते ही जा रहे हैं, सरकार क्यूँ नहीं इन बातों के ऊपर ठोस कदम उठाती है? सवाल बहुत हैं पर जवाब इनके पास नहीं है. क्यूंकि ये भी सिर्फ राजनीति ही जानते हैं.
अभी संसद में हाल ही में बवाल हुआ था, महिला आरक्षण पर. मैं यहाँ यही पूछना चाहता हूँ किन आरक्षण कि बात कर रही हैं ये महिला राजनेत्रियाँ या फिर ये सरकार? मेरे हिसाब से महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचार में तो आरक्षण दिलवा दिया इन महिला प्रशासकों ने और इनके कुशासन ने दिल्ली को बनवा दिया देश का सबसे असुरक्षित शहर महिलाओं के लिए. सबसे पहले तो महिलाओं का हितेषी बनने का ढोंग छोड़ दें जो 'महिला आरक्षण' दिखा कर, कर रहे हैं. अगर इन उच्च पदस्थ महिलाओं को ज़रा भी महिलाओं के प्रति दर्द इनके दिल में है तो दिल्ली को ही नहीं पूरे भारतवर्ष को महिलाओं पर हो रहे अत्याचार से मुक्त करें.
मेरा निवेदन है इन सबों से एक बार फिर कि, गन्दी राजनीति से ऊपर उठ कर इन आम जनता के बारे में सोच लें. अगर सच में आपको महिलाओं को आगे लाना है, उन्हें मुख्य धारा में सरीक करना है और इन्हें सशक्त बनाना है तो इन्हें पूर्ण सुरक्षा का अहसास दिलाएं. फिर मेरे विचार में इन्हें किसी आरक्षण कि ज़रूरत नहीं पड़ेगी. पूर्ण सुरक्षा का अहसास ही इनके लिए सबसे बड़ा आरक्षण होगा और पुनः हम गौरवान्वित होकर कह सकेंगे कि "भारत हमारी माता है"
गुरुवार, 1 अप्रैल 2010
इस्लाम और आतंकवाद
गत दिनों मैंने मास्को ब्लास्ट के बारे में देखा तो मेरे दिमाग में एक ही बात उस समय से आ रही है कि आखिर कब तक इस्लाम के नाम पर ये हत्याएं होती रहेंगी, क्या कोई धर्म ये बताता है कि जो इनके अनुयायी नहीं हैं उनकी हत्या कर दो. मेरा ज्ञान जहाँ तक कहता है कि, कोई भी धर्म ऐसी शिक्षा नहीं देता है और फिर भी इन्हें सही ठहराने वाले आपके आस-पास बहुत मिल जायेंगे. मेरे विचार से शायद जिस विवाद से सम्पूर्ण विश्व बचना चाह रहा है उस पर खुल कर बहस करने का सही वक्त आ गया है. ये मुद्दा अब समूचे संसार के सामने बहस का मुद्दा है "इस्लाम और आतंकवाद"
यह बिलकुल सही है कि "हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता है, पर हर एक पकड़ा जाने वाला आतंकवादी मुसलमान ही क्यूँ होता है" अगर हम कुछ एक उदाहरण को नज़रंदाज़ कर दें तो. दुनिया का हर देश इस्लाम आतंकवाद का दंस झेल रहा है. यह सवाल हर किसी के मन में हर वक्त आता है पर आज तक इसपर खुल के बहस करने से हर कोई कतराता हैं. अब शायद समय आ गया है की इस पर हम खुल के बात करें. क्यूंकि ये बहुत ही पुरानी कहावत है की 'करे कोई और भरे कोई'. इसलिए ये आतंकवादी संगठन इस्लाम के नाम पर दरिंदगी तो कर देते हैं हैं, पर इसका भुगतान हमारे निर्दोष मुसलमान भाइयों को भुगतना पड़ता है. अल-कायदा जिस ट्विन टावर को उड़ा कर 9/11 का जश्न मना रही थी, क्या उसके बाद उन्होंने देखा की वहां पर अमरीकी पुलिस ने कितने निर्दोष मुसलमानों को सलाखों के पीछे कर दिया. हज़ारों-हज़ार की संख्यां में निर्दोषों की गिरफ्तारियां हुई थी. कुछ तो रिहा होने के बाद भी अब तक अपनी सामान्य ज़िन्दगी नहीं जी पा रहे हैं. क्या यही ट्विन टावर उड़ने की उपलब्धी गिनाती है ये अल कायदा. इन्हें इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता है. आज इन लोगों ने आम मुसलमानों की ये हालत बना दी है की अगर आपका नाम अहमद, आरिफ, खान, अली या ऐसा कुछ भी है तो आपको शक की निगाह से देखा जाता है. अगर आप भारत से बाहर किसी अंग्रेजी देश की यात्रा पर हैं तो हवाई अड्डे पर जाँच दल सामान्य से ज्यादा आपकी तलाशी लेंगे. इसका सबसे बड़ा उदहारण हाल ही में शाहरुख़ खान की शिकागो हवाई अड्डे पर हुई घटना से लगा सकते हैं. जहाँ जाँच दल अधिकारी ने उन्हें घंटों बिठा कर रखा था.
वैसे सच्चाई ये भी है की लादेन जैसे आतंकवादियों को सही मानने वालों की कमी भी इस संसार में नहीं है. शायद आप सब भी मेरे इस बात से सहमत ही होंगे. क्यूंकि अगर इन्हें मानने वालों की कमी होती तो इनकी तायदाद दिन ब दिन बढती नहीं जाती. इनके लिए हर कोई फिदायीन या मानव बम बनने को तैयार नहीं रहता. अभी मास्को ब्लास्ट में भी मानव बम का ही इस्तमाल किया गया था. लेकिन मैं इस्लाम की लड़ाई लड़ने वाले आतंकवादियों से पूछना चाहता हूँ की जहाँ आप ब्लास्ट करते हैं वहां क्या कोई मुसलमान नहीं मारा जाता? शायद आपको अब तक याद होगा कि गत वर्ष पकिस्तान के एक फाईव स्टार होटल में जबरदस्त ब्लास्ट हुआ था, वो भी रमजान के पाक महीने में. सभी इफ्तार की नमाज़ अदा कर रहे थे और एक जबरदस्त धमाका हुआ था. मैं इन लोगों से पूछना चाहता हूँ, की यहाँ ये ये ब्लास्ट क्यूँ हुआ था. यहाँ तो सभी खुदा की इबादत कर रहे थे, जिस खुदा के लिए आप लड़ाई लड़ रहे हैं, ये निर्दोष तो उन्हें ही याद कर रहे थे. फिर क्यूँ यहाँ ब्लास्ट किया आपने? अगर आप मुसलामानों का खुद को बहुत बड़ा हितेषी मानते हैं तो अजमेर शरीफ और जामा मस्जिद में क्यूँ ब्लास्ट किया था? ज़रा इसका जवाब देंगे आप की वहां कौन मारा गया था, वही हमारे निर्दोष मुसल्मान भाई.
मेरे विचार में यहाँ पर आप लोगों के सामने तस्वीर पूरी तरह से साफ़ है की आतंकवादियों का कोई कौम या कोई धर्म नहीं होता. इनका एक अलग ही धर्म है आतंकवाद. दुनिया में आतंकवादी जहाँ भी हैं वो किसी इस्लाम, सिख या हिन्दू धर्म से सम्बन्ध नहीं रखते हैं. उनका अलग ही धर्म है जिसका नाम है 'आतंकवाद" और उनकी पवित्र किताब बम है. वही बम जो किसी की जाती या धर्म देख कर नहीं फटती. यहाँ मैं राजनेताओं को भी कहना चाहूँगा की धर्म की राजनीती में अपना वोट भुनाना थोडा कम करे दें साथ ही शाहरुख़ खान जैसी बड़ी हस्ती से कहना चाहूँगा की आप लोग तो राजनेता से भी अच्छी राजनीति कर लेते हैं. अपनी फिल्म को चलाने का क्या शानदार शगूफा पाकिस्तानी खिलाडियों के रूप में छोड़ा और आपकी फिल्म 'माई नेम इज खान' बन गयी, अब तक सबसे ज्यादा चलने वाली फिल्म. उसके बाद वापस मुंबई आने के बाद तो आप ऐसे शांत हो गए जैसे "गधे के सर से सींग गाएब हो गया हो". वैसे जनता तो बेवकूफ है, इन्हें पता ही नहीं चला की आप तो अपनी फिल्म की मार्केटिंग कर रहे हैं और जनताओं की भावनाओं से खेल रहे हैं. पाकिस्तानी क्रिकेटर के विवाद में तो आपने अपनी फिल्म चलाने के लिए जम के बयानबाजी कि, खुद को शिकागो में रोके जाने पर भी अच्छा ख़ासा मीडिया में हंगामा किया था. पर आप जैसे बड़े स्टार अगर कभी लादेन के खिलाफ मीडिया के सामने ऐसा बयान दे देंगे तो शायद इसका आम जनता में व्यापक असर पड़ेगा. प्रेस कांफ्रेंस बुला कर अगर आप जैसे स्टार सीधा लादेन को अपनी बात कहें की "ये देखो तुम्हारे कारण हमें क्या-क्या झेलना पड़ रहा है" मुझे पता है ये बड़ी बचकानी से बात मैं कह रहा हूँ लेकिन सरकार को दोष देने के बजाय हमारा भी तो कुछ कर्तव्य है. मुझे पता है इन बातों से तो लादेन जैसे लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पर अगर सब मिल कर हर बार ये बोलना शुरू कर देंगे तो शायद कुछ फर्क पड़े. कम से कम लादेन को नहीं पर उनको सही मानने वालों की संख्यां भी तो कम होगी. जब गाँधी जी निहत्थे अंग्रेजों से भारत को आज़ाद करने की बात करते थे तो लोग ऐसे ही उन्हें कहते थे की ये असंभव है, पर आखिर ये संभव कर दिखाया न उन्होंने. इसलिए अंततः मेरा इन सारे सितारों से अनुरोध है की ये कदम आप उठायें. ये ज़रूरी नहीं है की सिर्फ फ़िल्मी हस्ती ही आगे आयें. वो सभी मुसलमान भाई जो आज विश्व के सामने एक प्रसिद्धि हासिल किये हुए हैं, चाहे वो किसी भी क्षेत्र से सम्बन्ध रखते हों, सब आगे बढ़ें और एक एक करके अपनी बात इन आतंकवादी संगठनों तक पहुचाएं. फिर शायद वो दिन भी दूर नहीं होगा की कुछ तो बदलाव आयेगा. कम से कम निर्दोष मासूम तो इनके बहकावे में नहीं आयेंगे.
यह बिलकुल सही है कि "हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता है, पर हर एक पकड़ा जाने वाला आतंकवादी मुसलमान ही क्यूँ होता है" अगर हम कुछ एक उदाहरण को नज़रंदाज़ कर दें तो. दुनिया का हर देश इस्लाम आतंकवाद का दंस झेल रहा है. यह सवाल हर किसी के मन में हर वक्त आता है पर आज तक इसपर खुल के बहस करने से हर कोई कतराता हैं. अब शायद समय आ गया है की इस पर हम खुल के बात करें. क्यूंकि ये बहुत ही पुरानी कहावत है की 'करे कोई और भरे कोई'. इसलिए ये आतंकवादी संगठन इस्लाम के नाम पर दरिंदगी तो कर देते हैं हैं, पर इसका भुगतान हमारे निर्दोष मुसलमान भाइयों को भुगतना पड़ता है. अल-कायदा जिस ट्विन टावर को उड़ा कर 9/11 का जश्न मना रही थी, क्या उसके बाद उन्होंने देखा की वहां पर अमरीकी पुलिस ने कितने निर्दोष मुसलमानों को सलाखों के पीछे कर दिया. हज़ारों-हज़ार की संख्यां में निर्दोषों की गिरफ्तारियां हुई थी. कुछ तो रिहा होने के बाद भी अब तक अपनी सामान्य ज़िन्दगी नहीं जी पा रहे हैं. क्या यही ट्विन टावर उड़ने की उपलब्धी गिनाती है ये अल कायदा. इन्हें इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता है. आज इन लोगों ने आम मुसलमानों की ये हालत बना दी है की अगर आपका नाम अहमद, आरिफ, खान, अली या ऐसा कुछ भी है तो आपको शक की निगाह से देखा जाता है. अगर आप भारत से बाहर किसी अंग्रेजी देश की यात्रा पर हैं तो हवाई अड्डे पर जाँच दल सामान्य से ज्यादा आपकी तलाशी लेंगे. इसका सबसे बड़ा उदहारण हाल ही में शाहरुख़ खान की शिकागो हवाई अड्डे पर हुई घटना से लगा सकते हैं. जहाँ जाँच दल अधिकारी ने उन्हें घंटों बिठा कर रखा था.
वैसे सच्चाई ये भी है की लादेन जैसे आतंकवादियों को सही मानने वालों की कमी भी इस संसार में नहीं है. शायद आप सब भी मेरे इस बात से सहमत ही होंगे. क्यूंकि अगर इन्हें मानने वालों की कमी होती तो इनकी तायदाद दिन ब दिन बढती नहीं जाती. इनके लिए हर कोई फिदायीन या मानव बम बनने को तैयार नहीं रहता. अभी मास्को ब्लास्ट में भी मानव बम का ही इस्तमाल किया गया था. लेकिन मैं इस्लाम की लड़ाई लड़ने वाले आतंकवादियों से पूछना चाहता हूँ की जहाँ आप ब्लास्ट करते हैं वहां क्या कोई मुसलमान नहीं मारा जाता? शायद आपको अब तक याद होगा कि गत वर्ष पकिस्तान के एक फाईव स्टार होटल में जबरदस्त ब्लास्ट हुआ था, वो भी रमजान के पाक महीने में. सभी इफ्तार की नमाज़ अदा कर रहे थे और एक जबरदस्त धमाका हुआ था. मैं इन लोगों से पूछना चाहता हूँ, की यहाँ ये ये ब्लास्ट क्यूँ हुआ था. यहाँ तो सभी खुदा की इबादत कर रहे थे, जिस खुदा के लिए आप लड़ाई लड़ रहे हैं, ये निर्दोष तो उन्हें ही याद कर रहे थे. फिर क्यूँ यहाँ ब्लास्ट किया आपने? अगर आप मुसलामानों का खुद को बहुत बड़ा हितेषी मानते हैं तो अजमेर शरीफ और जामा मस्जिद में क्यूँ ब्लास्ट किया था? ज़रा इसका जवाब देंगे आप की वहां कौन मारा गया था, वही हमारे निर्दोष मुसल्मान भाई.
मेरे विचार में यहाँ पर आप लोगों के सामने तस्वीर पूरी तरह से साफ़ है की आतंकवादियों का कोई कौम या कोई धर्म नहीं होता. इनका एक अलग ही धर्म है आतंकवाद. दुनिया में आतंकवादी जहाँ भी हैं वो किसी इस्लाम, सिख या हिन्दू धर्म से सम्बन्ध नहीं रखते हैं. उनका अलग ही धर्म है जिसका नाम है 'आतंकवाद" और उनकी पवित्र किताब बम है. वही बम जो किसी की जाती या धर्म देख कर नहीं फटती. यहाँ मैं राजनेताओं को भी कहना चाहूँगा की धर्म की राजनीती में अपना वोट भुनाना थोडा कम करे दें साथ ही शाहरुख़ खान जैसी बड़ी हस्ती से कहना चाहूँगा की आप लोग तो राजनेता से भी अच्छी राजनीति कर लेते हैं. अपनी फिल्म को चलाने का क्या शानदार शगूफा पाकिस्तानी खिलाडियों के रूप में छोड़ा और आपकी फिल्म 'माई नेम इज खान' बन गयी, अब तक सबसे ज्यादा चलने वाली फिल्म. उसके बाद वापस मुंबई आने के बाद तो आप ऐसे शांत हो गए जैसे "गधे के सर से सींग गाएब हो गया हो". वैसे जनता तो बेवकूफ है, इन्हें पता ही नहीं चला की आप तो अपनी फिल्म की मार्केटिंग कर रहे हैं और जनताओं की भावनाओं से खेल रहे हैं. पाकिस्तानी क्रिकेटर के विवाद में तो आपने अपनी फिल्म चलाने के लिए जम के बयानबाजी कि, खुद को शिकागो में रोके जाने पर भी अच्छा ख़ासा मीडिया में हंगामा किया था. पर आप जैसे बड़े स्टार अगर कभी लादेन के खिलाफ मीडिया के सामने ऐसा बयान दे देंगे तो शायद इसका आम जनता में व्यापक असर पड़ेगा. प्रेस कांफ्रेंस बुला कर अगर आप जैसे स्टार सीधा लादेन को अपनी बात कहें की "ये देखो तुम्हारे कारण हमें क्या-क्या झेलना पड़ रहा है" मुझे पता है ये बड़ी बचकानी से बात मैं कह रहा हूँ लेकिन सरकार को दोष देने के बजाय हमारा भी तो कुछ कर्तव्य है. मुझे पता है इन बातों से तो लादेन जैसे लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पर अगर सब मिल कर हर बार ये बोलना शुरू कर देंगे तो शायद कुछ फर्क पड़े. कम से कम लादेन को नहीं पर उनको सही मानने वालों की संख्यां भी तो कम होगी. जब गाँधी जी निहत्थे अंग्रेजों से भारत को आज़ाद करने की बात करते थे तो लोग ऐसे ही उन्हें कहते थे की ये असंभव है, पर आखिर ये संभव कर दिखाया न उन्होंने. इसलिए अंततः मेरा इन सारे सितारों से अनुरोध है की ये कदम आप उठायें. ये ज़रूरी नहीं है की सिर्फ फ़िल्मी हस्ती ही आगे आयें. वो सभी मुसलमान भाई जो आज विश्व के सामने एक प्रसिद्धि हासिल किये हुए हैं, चाहे वो किसी भी क्षेत्र से सम्बन्ध रखते हों, सब आगे बढ़ें और एक एक करके अपनी बात इन आतंकवादी संगठनों तक पहुचाएं. फिर शायद वो दिन भी दूर नहीं होगा की कुछ तो बदलाव आयेगा. कम से कम निर्दोष मासूम तो इनके बहकावे में नहीं आयेंगे.
गुरुवार, 25 मार्च 2010
आरक्षण किसके लिए.......
कल मैंने मुलायम सिंह जी का बयान अख़बार में पढ़ा कि "अगर महिला आरक्षण लागू हो गया तो संसद भवन में सिर्फ सीटियाँ ही बजेगी". सच कहूँ तो मैंने तय किया था कि "मैं आरक्षण पर कुछ भी नहीं लिखूंगा. क्यूंकि हर किसी का इसपर अपना मत है और हर एक व्यक्ति अपने मतानुसार उचित है. इसलिए मैं इस वाद-विवाद में पड़ना नहीं चाहता था." परन्तु मुलायम सिंह के कल के बयान ने मुझे सोचने पर मजबूर करवा दिया है कि ये राजनेता देश कल्याण कि बात कभी सोचते भी हैं या नहीं? ये बिलकुल भूल गए कि जिस देश कि महिला के बारे में अपशब्दों का प्रयोग कर रहे हैं उसी देश को हम "माता" कह के बुलाते हैं और तो और आज उन्होंने फिर से कहा कि मैं जो कह रहा हों बिलकुल सही कह रहा हूँ और इसके लिए मैं किसी से माफ़ी भी नहीं मांगूंगा.
मैं मुलायम सिंह जी से पूछना चाहूँगा कि इस तरह का बयान देते समय उन्होंने ये नहीं सोचा कि अगर उनकी पुत्रवधू जो राज बब्बर से चुनाव हार गयी, वो अगर संसद में होती और ऐसी हरकत हो जाये तो उन्हें कैसा लगेगा. इस तरह के शब्दों के प्रयोग के लिए मैं आप सबसे माफ़ी मांगता हूँ, पर लोगों को हर चीज़ पहले अपने ऊपर ले कर सोचना चाहिए, तब कुछ कहना चाहिए. जो बात आपके लिए बुरी है वही बात दूसरों के लिए भी तो बुरी हो सकती है. इस तरह का बयान देने वाला व्यक्ति किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री कैसे हो सकता है. मैं तो समझता हूँ कि देश के सबसे बड़ी विडम्बना थी जब ये हमारे रक्षा मंत्री बने थे. जो व्यक्ति महिलाओं के बारे में ऐसा सोचता हो वो उनकी रक्षा के बारे में क्या सोचेगा.
मुलायम सिंह जी, समाजवादी कि राजनीति करने वाले हैं. जब देखो समाजवाद का ढोंग करके अपने पूरे कुनबे को पार्टी के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन किये हुए हैं. इनकी पूरी पार्टी में कही इनका बेटा है, तो कहीं भाई तो कही पुत्रवधू. ये हैं समाजवादी पार्टी. असल में इसका नाम होना चाहिए समाज के बाद कि पार्टी यानी "परिवारवाद पार्टी".
अब ज़रा आरक्षण कि बात अगर करें तो ये किस आरक्षण का दिखावा कर रहे हैं. सही मायनो में देखा जाये तो इसका फायदा किन वर्गों को होगा, किसी ने नहीं सोचा? बस सभी लगे पड़े हैं अपनी राजनीति करने में. कांग्रेस और भाजपा, महिलाओं को सशक्त बनाने कि बात कर रही हैं आरक्षण के नाम पर, इधर लालू यादव, मुलायम सिंह और शरद यादव उसमे पिछड़ों को आरक्षण देने के मांग कर रहे हैं. यहाँ लोगों को करना कुछ नहीं है बस अपनी राजनीति कि रोटी सेंकनी है.
अब ज़रा हम अब तक चली आ रही आरक्षण व्यवस्था पर अगर नज़र डालें तो एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि सरकार द्वारा दिया जा रहा हरिजन और आदिवासी आरक्षण का फायदा सिर्फ शहर के संभ्रांत परिवार ही उठा रहे हैं. गाँव के हरिजन आदिवासी अभी तक उसी हालत में है. अब इन नेताओं को कौन समझाएगा कि पहले उनके जीवन स्तर को ठीक करने कि बात सोचे. जिस गाँव में स्कूल और कॉलेज नहीं है वहां इसकी व्यवस्था करे. एक अभियान चलाया जाये जिसमे इन्हें बताया जाये इन्हें जागृत किया जाये कि इनका पढ़ा-लिखा होना कितना आवश्यक है. तब इस तरह के आरक्षण का फायदा है और मेरे विचार में सही आरक्षण का आधार यही है. आरक्षण का मतलब होना चाहिए कि ऐसे ही लोगों को मुख्य धरा में लाना जो इन सबसे कोसों दूर हैं. न कि वो लोग जो संभ्रांत होते हुए भी अभी तक इस आरक्षण का फायदा उठा रहे हैं.
आरक्षण हो या न हो इसपर बहस तो बाद में कीजिये पर सबसे पहले ये देखने कि कोशिश करें कि जिस वर्ग को आप ये सुविधा देना चाह रहे हैं क्या वो इनसे लाभान्वित हो रहे हैं. आज हम महिला आरक्षण कि बात कर रहे हैं पर ये भी सोचें कि इससे किन महिलाओं को लाभ होगा? शायद मैं इन नेताओं कि जानकारी के लिए बता दूं कि भारत कि 15 साल से उपर कि महिलाओं में करीब 40% अभी तक अशिक्षित हैं. मेरे विचार में पहले हम इन्हें शिक्षित करें फिर इनके आरक्षण कि बात करें तो बेहतर होगा. वरना फिर से ये महिलाएं बिकास से कोसों दूर रह जाएँगी और फायदा होगा उन्ही फायदेमंद लोगों को और अगर सिर्फ राजनीति ही करनी है तो कोई बात नहीं. फिर क्या फर्क पड़ता है कि कौन लाभान्वित हो रहा है और कौन नहीं.
पर मेरा नम्र निवेदन है उन तमाम राजनेताओं से कि आप लोग बड़े भाग्यशाली हैं कि आपको देश कि सेवा का मौका मिला है. जनता सैकड़ों सपने बुन कर आपको वहां तक पहुंचाती है तो कृपया कुछ ऐसा न करें कि लोकतंत्र शर्मशार हो. क्यूँ न आप कुछ ऐसा करें कि हम जनता को फक्र महसूस हो और हम गर्व से कह सकें कि इन्हें हमने वोट किया है.
मैं मुलायम सिंह जी से पूछना चाहूँगा कि इस तरह का बयान देते समय उन्होंने ये नहीं सोचा कि अगर उनकी पुत्रवधू जो राज बब्बर से चुनाव हार गयी, वो अगर संसद में होती और ऐसी हरकत हो जाये तो उन्हें कैसा लगेगा. इस तरह के शब्दों के प्रयोग के लिए मैं आप सबसे माफ़ी मांगता हूँ, पर लोगों को हर चीज़ पहले अपने ऊपर ले कर सोचना चाहिए, तब कुछ कहना चाहिए. जो बात आपके लिए बुरी है वही बात दूसरों के लिए भी तो बुरी हो सकती है. इस तरह का बयान देने वाला व्यक्ति किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री कैसे हो सकता है. मैं तो समझता हूँ कि देश के सबसे बड़ी विडम्बना थी जब ये हमारे रक्षा मंत्री बने थे. जो व्यक्ति महिलाओं के बारे में ऐसा सोचता हो वो उनकी रक्षा के बारे में क्या सोचेगा.
मुलायम सिंह जी, समाजवादी कि राजनीति करने वाले हैं. जब देखो समाजवाद का ढोंग करके अपने पूरे कुनबे को पार्टी के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन किये हुए हैं. इनकी पूरी पार्टी में कही इनका बेटा है, तो कहीं भाई तो कही पुत्रवधू. ये हैं समाजवादी पार्टी. असल में इसका नाम होना चाहिए समाज के बाद कि पार्टी यानी "परिवारवाद पार्टी".
अब ज़रा आरक्षण कि बात अगर करें तो ये किस आरक्षण का दिखावा कर रहे हैं. सही मायनो में देखा जाये तो इसका फायदा किन वर्गों को होगा, किसी ने नहीं सोचा? बस सभी लगे पड़े हैं अपनी राजनीति करने में. कांग्रेस और भाजपा, महिलाओं को सशक्त बनाने कि बात कर रही हैं आरक्षण के नाम पर, इधर लालू यादव, मुलायम सिंह और शरद यादव उसमे पिछड़ों को आरक्षण देने के मांग कर रहे हैं. यहाँ लोगों को करना कुछ नहीं है बस अपनी राजनीति कि रोटी सेंकनी है.
अब ज़रा हम अब तक चली आ रही आरक्षण व्यवस्था पर अगर नज़र डालें तो एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि सरकार द्वारा दिया जा रहा हरिजन और आदिवासी आरक्षण का फायदा सिर्फ शहर के संभ्रांत परिवार ही उठा रहे हैं. गाँव के हरिजन आदिवासी अभी तक उसी हालत में है. अब इन नेताओं को कौन समझाएगा कि पहले उनके जीवन स्तर को ठीक करने कि बात सोचे. जिस गाँव में स्कूल और कॉलेज नहीं है वहां इसकी व्यवस्था करे. एक अभियान चलाया जाये जिसमे इन्हें बताया जाये इन्हें जागृत किया जाये कि इनका पढ़ा-लिखा होना कितना आवश्यक है. तब इस तरह के आरक्षण का फायदा है और मेरे विचार में सही आरक्षण का आधार यही है. आरक्षण का मतलब होना चाहिए कि ऐसे ही लोगों को मुख्य धरा में लाना जो इन सबसे कोसों दूर हैं. न कि वो लोग जो संभ्रांत होते हुए भी अभी तक इस आरक्षण का फायदा उठा रहे हैं.
आरक्षण हो या न हो इसपर बहस तो बाद में कीजिये पर सबसे पहले ये देखने कि कोशिश करें कि जिस वर्ग को आप ये सुविधा देना चाह रहे हैं क्या वो इनसे लाभान्वित हो रहे हैं. आज हम महिला आरक्षण कि बात कर रहे हैं पर ये भी सोचें कि इससे किन महिलाओं को लाभ होगा? शायद मैं इन नेताओं कि जानकारी के लिए बता दूं कि भारत कि 15 साल से उपर कि महिलाओं में करीब 40% अभी तक अशिक्षित हैं. मेरे विचार में पहले हम इन्हें शिक्षित करें फिर इनके आरक्षण कि बात करें तो बेहतर होगा. वरना फिर से ये महिलाएं बिकास से कोसों दूर रह जाएँगी और फायदा होगा उन्ही फायदेमंद लोगों को और अगर सिर्फ राजनीति ही करनी है तो कोई बात नहीं. फिर क्या फर्क पड़ता है कि कौन लाभान्वित हो रहा है और कौन नहीं.
पर मेरा नम्र निवेदन है उन तमाम राजनेताओं से कि आप लोग बड़े भाग्यशाली हैं कि आपको देश कि सेवा का मौका मिला है. जनता सैकड़ों सपने बुन कर आपको वहां तक पहुंचाती है तो कृपया कुछ ऐसा न करें कि लोकतंत्र शर्मशार हो. क्यूँ न आप कुछ ऐसा करें कि हम जनता को फक्र महसूस हो और हम गर्व से कह सकें कि इन्हें हमने वोट किया है.
रविवार, 21 मार्च 2010
दलित या दौलत
माया चाहे दौलत की हो या दलितों की, ये हमेशा मायावी ही होती है. ये मुझे पिछले 15 मार्च को पता चला जब दलितों की माया ने अपनी एक विराट रैली में दौलत की माया का रूप धारण किया. वैसे एक ज़माना था जब मैं भी कांशी राम को दलितों का मसीहा समझता था. उन्होंने दलितों के जीवन स्तर को सुधारने का अनवरत प्रयास किया. शायद उन्ही की मेहनत की वजह से आज मायावती दौलत की माया बन गयी हैं और वो संघर्ष करते हुए इस दुनिया से चले गए. लेकिन इन्हें ये पता नहीं है की ये अगर माया हैं, तो जनता दौलत से भी ज्यादा मायावी है.
जिस दिन मायावती करोड़ों रुपये कि माला धारण करके लखनऊ में अपनी सभा संबोधित कर रही थी उस दिन उन्हें ज़रा भी याद नहीं रहा कि ये शायद उनके प्रदेश का सबसे काला दिन है क्यूँकि उन दिनों बरेली में दंगे हो रहे थे. बरेली कि जनता कर्फ्यू के साए में जी रही थी. एक तरफ लखनऊ नीली रौशनी से जगमगा रहा था वही दूसरी ओर बरेली में अजीब सा सन्नाटा पड़ा हुआ था. पर इन्हें क्या मतलब ये तो अपनी रैली करेंगी. रैली में जहाँ 200 करोड़ रुपये खर्च हुए तो शायद इन पैसों से बरेली के कई उजड़े हुए घर आबाद हो सकते थे. लेकिन इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता क्यूँकि चुनाव अभी बहुत दूर है.
अगर यहाँ सिर्फ मायावती की ही बात कही जाए तो इनकी पहचान क्या है? देश इन्हें किस रूप में जानता है, कि ये देश के बहुत बड़े राज्य उत्तर प्रदेश कि मुख्य मंत्री हैं? मैं समझता हूँ कि इससे पहले देश इन्हें दलितों के बहुत बड़े नेता के रूप में जानता है. ये देश कि एक ऐसी नेता हैं जो दलितों का प्रतिनिधित्व करती हैं और इन्ही सब चीज़ को भुना के आज ये उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बन गयी. पर इनके मुख्य मंत्रित्व काल में उत्तर प्रदेश के दलितों के हालत के बारे में मेरे पास कुछ जानकारियां हैं जो आपके समक्ष बांटना चाहता हूँ. ये सारी घटनाएँ 2008-2009 के बीच कि ही हैं-
फरवरी 26 को इटावा के एक थानेमें मामला दर्ज हुआ है कि "एक आठ साल कि दलित लड़की को 280 रूपया चुराने के इलज़ाम में बालों से घसीट कर थानेमें लाया गया, और देश के सभी न्यूज़ चैनेल पर लोगों ने इसे देखा था.
दिसम्बर 9,2009 को एक और मामला सामने आया जिसमे चार लोगों ने एक सत्तर साल कि दलित महिला का बलात्कार किया था. उसके बेटे और बहु को पैरों में गोली मार दिया गया क्यूंकि वो इस महिला को बचाने कि कोशिश कर रहे थे.
फरवरी 10, 2009 का एक और मामला है जिसमे बंद जिला के गिरवान गाँव में एक सात साल के दलित लड़की का बलात्कार हुआ.
इस तरह से अगर मैं एक दलित मुख्य मंत्री के शासनकाल का विवरण देना शुरू कर दूंगा तो आप स्तब्ध रह जायेंगे और सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि क्या एक दलित महिला का प्रदेश कि मुख्य मंत्री होने के बाद भी दलित महिलाओं पर इतना अत्यचार कैसे हो रहा है? इसके पीछे बस एक ही कारण है, कि मायावती की माया दलितों के लिए बस वोट लेने तक ही है और अब ये दौलत कि माया बन गयी है. मानवाधिकार आयोग के रिपोर्ट में तो यहाँ तक कहा गया है कि गत दिनों जितने भी केस दर्ज हुए हैं उनमे अधिकतम दलित अत्याचार के ऊपर ही हैं. लेकिन मायावती जी को यह सब जानने समझने कि फुर्सत कहाँ है. मैं तो बस इतना जानता हूँ कि संसार में बस दो जातियां होती है. एक पैसेवालों कि दूसरी गरीबों की. इसलिए मैं उत्तर प्रदेश कि अवाम को सचेत करना चाहता हूँ कि जो भी गरीब या दलित मायावती जी के भरोसे हैं अब उन्हें भूल जाएँ. क्यूंकि मायावती जी ने अब अपनी जाति बदल ली है.
रैली में मायावती ने जिन नोटों कि माला पहनी है, कहा जाता है कि ये करीब पांच करोड़ कि माला बनी थी जिसमे सभी हज़ार हज़ार के नोट लगे हुए थे. मैं यहाँ ये जानना चाहता हूँ कि क्या सरकार जांच कर रही है कि ये पैसे कहाँ से आये हैं? बताया जाता है कि माला को खूबसूरत बनाने के लिए इसके किनारों को लाल रंग से रंगा गया था. क्या आर. बी. आई. के तहत इनपर मुकदमा नहीं चलना चाहिए. क्यूंकि जहाँ तक मेरी जानकारी कहती है कि अगर आप नोट पर कुछ लिखते हैं या किसी अन्य तरीकों से भी इसकी वर्तमान अवस्था को भिन्न करने कि कोशिश कि जाती है तो ये संगीन अपराध माना जाता है.
वैसे इन सब से मैडम मायावती को क्या फर्क पड़ता है. अगर एक ब्यौरा इनकी संपत्ति पर डाले तो खुद मैं आश्चर्य चकित हो जाता हूँ. सीबीआई कि चार्जशीट के हिसाब से मायावती के पास 74 प्रोपर्टी खेती वाली ज़मीन इनके परिवार वालों के नाम से हैं, 16 अवासीय प्लाट हैं, 5 जंगल के लिए ज़मीन है साथ ही 2 दुकाने और 3 बगीचा है. जिसकी कीमत अंदाज़न 6.93 करोड़ आंकी गयी है. इसके अलावा 12.98 करोड़ रुपये इनके पास दान के द्वारा करीब 130 दानदाताओं से मिले थे पर सीबीआई को बड़ी मेहनत करने के बाद सिर्फ 30 दानदाता ही मिले हैं. एक बात आपको मैं यहाँ और बताना चाहूँगा कि मायावती जी का दिल्ली के महरोली में करीब चार एकड़ का प्लाट है जिसकी कीमत इन्होने 10लाख रुपये कागजों में दिखाया है. तो आप खुद ही इससे ऊपर 6.93 करोड़ आंकड़े का मतलब समझ सकते हैं अगर महरोली कि ज़मीन १०लाख कि है तो.
अंततः मैं वापस राजनीति कि उसी दहलीज पर पहुँच गया हूँ और सोचने पर मजबूर हो गया हूँ कि क्या है इस राजनीति का भविष्य? सच कहूँ तो मुझे कोई जवाब नहीं मिल रहा है. क्या हम ऐसे ही चुप बैठ कर तमाशा देखते रहेंगे, या मैं बस अपना ब्लॉग लिख कर ही खुश होता रहूँगा कि चलो मेरा तो काम पूरा हो गया? फिर मैं सोचता हूँ, कि नहीं एक दिन आएगा जब सिर्फ इसपर बहस नहीं होगी बल्कि इसे सुधारने हम और आप आगे आएंगे. तो शायद अब इंतजार इसी बात का है कि पानी नाक से ऊपर हो जाए.....
जिस दिन मायावती करोड़ों रुपये कि माला धारण करके लखनऊ में अपनी सभा संबोधित कर रही थी उस दिन उन्हें ज़रा भी याद नहीं रहा कि ये शायद उनके प्रदेश का सबसे काला दिन है क्यूँकि उन दिनों बरेली में दंगे हो रहे थे. बरेली कि जनता कर्फ्यू के साए में जी रही थी. एक तरफ लखनऊ नीली रौशनी से जगमगा रहा था वही दूसरी ओर बरेली में अजीब सा सन्नाटा पड़ा हुआ था. पर इन्हें क्या मतलब ये तो अपनी रैली करेंगी. रैली में जहाँ 200 करोड़ रुपये खर्च हुए तो शायद इन पैसों से बरेली के कई उजड़े हुए घर आबाद हो सकते थे. लेकिन इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता क्यूँकि चुनाव अभी बहुत दूर है.
अगर यहाँ सिर्फ मायावती की ही बात कही जाए तो इनकी पहचान क्या है? देश इन्हें किस रूप में जानता है, कि ये देश के बहुत बड़े राज्य उत्तर प्रदेश कि मुख्य मंत्री हैं? मैं समझता हूँ कि इससे पहले देश इन्हें दलितों के बहुत बड़े नेता के रूप में जानता है. ये देश कि एक ऐसी नेता हैं जो दलितों का प्रतिनिधित्व करती हैं और इन्ही सब चीज़ को भुना के आज ये उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बन गयी. पर इनके मुख्य मंत्रित्व काल में उत्तर प्रदेश के दलितों के हालत के बारे में मेरे पास कुछ जानकारियां हैं जो आपके समक्ष बांटना चाहता हूँ. ये सारी घटनाएँ 2008-2009 के बीच कि ही हैं-
फरवरी 26 को इटावा के एक थानेमें मामला दर्ज हुआ है कि "एक आठ साल कि दलित लड़की को 280 रूपया चुराने के इलज़ाम में बालों से घसीट कर थानेमें लाया गया, और देश के सभी न्यूज़ चैनेल पर लोगों ने इसे देखा था.
दिसम्बर 9,2009 को एक और मामला सामने आया जिसमे चार लोगों ने एक सत्तर साल कि दलित महिला का बलात्कार किया था. उसके बेटे और बहु को पैरों में गोली मार दिया गया क्यूंकि वो इस महिला को बचाने कि कोशिश कर रहे थे.
फरवरी 10, 2009 का एक और मामला है जिसमे बंद जिला के गिरवान गाँव में एक सात साल के दलित लड़की का बलात्कार हुआ.
इस तरह से अगर मैं एक दलित मुख्य मंत्री के शासनकाल का विवरण देना शुरू कर दूंगा तो आप स्तब्ध रह जायेंगे और सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि क्या एक दलित महिला का प्रदेश कि मुख्य मंत्री होने के बाद भी दलित महिलाओं पर इतना अत्यचार कैसे हो रहा है? इसके पीछे बस एक ही कारण है, कि मायावती की माया दलितों के लिए बस वोट लेने तक ही है और अब ये दौलत कि माया बन गयी है. मानवाधिकार आयोग के रिपोर्ट में तो यहाँ तक कहा गया है कि गत दिनों जितने भी केस दर्ज हुए हैं उनमे अधिकतम दलित अत्याचार के ऊपर ही हैं. लेकिन मायावती जी को यह सब जानने समझने कि फुर्सत कहाँ है. मैं तो बस इतना जानता हूँ कि संसार में बस दो जातियां होती है. एक पैसेवालों कि दूसरी गरीबों की. इसलिए मैं उत्तर प्रदेश कि अवाम को सचेत करना चाहता हूँ कि जो भी गरीब या दलित मायावती जी के भरोसे हैं अब उन्हें भूल जाएँ. क्यूंकि मायावती जी ने अब अपनी जाति बदल ली है.
रैली में मायावती ने जिन नोटों कि माला पहनी है, कहा जाता है कि ये करीब पांच करोड़ कि माला बनी थी जिसमे सभी हज़ार हज़ार के नोट लगे हुए थे. मैं यहाँ ये जानना चाहता हूँ कि क्या सरकार जांच कर रही है कि ये पैसे कहाँ से आये हैं? बताया जाता है कि माला को खूबसूरत बनाने के लिए इसके किनारों को लाल रंग से रंगा गया था. क्या आर. बी. आई. के तहत इनपर मुकदमा नहीं चलना चाहिए. क्यूंकि जहाँ तक मेरी जानकारी कहती है कि अगर आप नोट पर कुछ लिखते हैं या किसी अन्य तरीकों से भी इसकी वर्तमान अवस्था को भिन्न करने कि कोशिश कि जाती है तो ये संगीन अपराध माना जाता है.
वैसे इन सब से मैडम मायावती को क्या फर्क पड़ता है. अगर एक ब्यौरा इनकी संपत्ति पर डाले तो खुद मैं आश्चर्य चकित हो जाता हूँ. सीबीआई कि चार्जशीट के हिसाब से मायावती के पास 74 प्रोपर्टी खेती वाली ज़मीन इनके परिवार वालों के नाम से हैं, 16 अवासीय प्लाट हैं, 5 जंगल के लिए ज़मीन है साथ ही 2 दुकाने और 3 बगीचा है. जिसकी कीमत अंदाज़न 6.93 करोड़ आंकी गयी है. इसके अलावा 12.98 करोड़ रुपये इनके पास दान के द्वारा करीब 130 दानदाताओं से मिले थे पर सीबीआई को बड़ी मेहनत करने के बाद सिर्फ 30 दानदाता ही मिले हैं. एक बात आपको मैं यहाँ और बताना चाहूँगा कि मायावती जी का दिल्ली के महरोली में करीब चार एकड़ का प्लाट है जिसकी कीमत इन्होने 10लाख रुपये कागजों में दिखाया है. तो आप खुद ही इससे ऊपर 6.93 करोड़ आंकड़े का मतलब समझ सकते हैं अगर महरोली कि ज़मीन १०लाख कि है तो.
अंततः मैं वापस राजनीति कि उसी दहलीज पर पहुँच गया हूँ और सोचने पर मजबूर हो गया हूँ कि क्या है इस राजनीति का भविष्य? सच कहूँ तो मुझे कोई जवाब नहीं मिल रहा है. क्या हम ऐसे ही चुप बैठ कर तमाशा देखते रहेंगे, या मैं बस अपना ब्लॉग लिख कर ही खुश होता रहूँगा कि चलो मेरा तो काम पूरा हो गया? फिर मैं सोचता हूँ, कि नहीं एक दिन आएगा जब सिर्फ इसपर बहस नहीं होगी बल्कि इसे सुधारने हम और आप आगे आएंगे. तो शायद अब इंतजार इसी बात का है कि पानी नाक से ऊपर हो जाए.....
सोमवार, 22 फ़रवरी 2010
रो पड़ी डा. राजेंद्र प्रसाद की आत्मा .......
जीरादेई, बिहार के सीवान जिले का एक छोटा सा गाँव. ये एक ऐसा गाँव है जिसने देश को प्रथम राष्ट्रपति दिया. शायद यह गाँव उसी दिन इतिहास के पन्नों में चला गया. डा. राजेंद्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने और उसी दिन से ये बिहार के एक पवित्र गाँव में इसकी गिनती शुरू हो गयी. लोगों का मानना था की कुछ तो बात है यहाँ की मिट्टी में की ऐसी विलक्षण प्रतिभा का जन्म यहाँ हुआ है. राजेंद्र बाबू ने जीरादेई का नाम पूरे भारतवर्ष में ऊँचा किया.
पर कुछ दिनों पहले जीरादेई एक बार फिर लोगों के सामने आया. यह गाँव एक बार फिर से लोगों के आकर्षण का केंद्र बना, पर मैं समझ नहीं पाया कि यह कौन सी प्रतिभा थी. असल में पिछले दिनों बिहार कि राजधानी पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने "महादलित रैली" का आयोजन करवाया था. इसी सिलसिले में भाग लेने जीरादेई से कुछ लोग आये हुए थे जो वही के विधायक "श्याम बहादुर सिंह" के सरकारी आवास पर ठहरे हुए थे और पवित्र ग्राम "जीरादेई" के विधायक ने अपने लोगों के मनोरंजन के लिए "बार बालाओं" के नाच का भी कार्यक्रम रखा था. चलिए यहाँ तक तो किसी को शायद कोई आपत्ति नहीं होगी. लेकिन जब आधी रात के बाद विधायक जी पर शराब का नशा उनके सर चढ़ के बोलने लगा तो अपनी मर्यादा भूल कर आ गए वो भी "बार बालाओं" के साथ मैंदान में. वो भी लगे उनके साथ ठुमके लगाने. उनके उस अशलील ठुमकों को देख कर मुझे अपनी आँखों पर यकीं नहीं हो रहा था कि ये जीरादेई जैसे पवित्र भूमी का प्रतिनिधित्व करते हैं और प्रेस के सामने विधायक जी कह रहे हैं कि "बुरा न मानो होली है" मैंने सोचा की शराब के नशे के साथ अगर सत्ता का भी नशा किसी के ऊपर चढ़ जाये तो इसका अंजाम यही होता है. सत्ता का नशा तो अच्छे अच्छों को बहका देता है.
अगर डा. राजेंद्र प्रसाद की आत्मा यह सब देख रही होगी तो वो भी फूट फूट कर रो रही होगी और सोच रही होगी कि "क्या इसी लोकतंत्र के लिए हम अंग्रेजों से लड़े थे." जीरादेई तो एक छोटा सा उदाहरण है आप सबों के सामने, लोकतंत्र का मज़ाक तो देश के हर हिस्से में अलग अलग तरीके से हमारे ये नेता उड़ा रहे हैं. क्या हम यूँ ही ये सब देखते रहेंगे? जितने भी नियम क़ानून बनते हैं वो हम आम जनता के लिए होता है. पर इनके लिए ये कुछ नहीं होता. अगर कोई सरकारी पदाधिकारी ये दुस्साहस करता तो अब तक उसे उसके पद से निष्कासित कर दिया गया होता पर इनको कौन कहेगा?
आप ही सोचिये किसी भी ऑफिस को चपरासी भी चाहिए तो कम से कम दसवी पास की योग्यता रखी जाती है. लेकिन जो आपका देश चला रहा है, आपके लिए नियम क़ानून निर्धारित कर रहा है, उस पद पर जाने की क्या योग्यता है, बस अंगूठा छाप? कितनी निंदनीय व्यवस्था है, मेरी समझ से अब वक्त आ गया है की इस पर बहस छिड़ना चाहिए, लोगों को इसके बारे में सोचना चाहिए. एक चीज़ मैं यहाँ और बता देना चाहता हूँ कि अगर इस इंतज़ार में मत रहिएगा कि ये नेता इस बारे में कुछ सोचेंगे तो ये तो कभी नहीं होगा, क्यूंकि इससे इनकी कुर्सी हिल जाएगी. इसलिए हमें आगे आना होगा. तभी इस देश का दुर्भाग्य बदलेगा.
पर कुछ दिनों पहले जीरादेई एक बार फिर लोगों के सामने आया. यह गाँव एक बार फिर से लोगों के आकर्षण का केंद्र बना, पर मैं समझ नहीं पाया कि यह कौन सी प्रतिभा थी. असल में पिछले दिनों बिहार कि राजधानी पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने "महादलित रैली" का आयोजन करवाया था. इसी सिलसिले में भाग लेने जीरादेई से कुछ लोग आये हुए थे जो वही के विधायक "श्याम बहादुर सिंह" के सरकारी आवास पर ठहरे हुए थे और पवित्र ग्राम "जीरादेई" के विधायक ने अपने लोगों के मनोरंजन के लिए "बार बालाओं" के नाच का भी कार्यक्रम रखा था. चलिए यहाँ तक तो किसी को शायद कोई आपत्ति नहीं होगी. लेकिन जब आधी रात के बाद विधायक जी पर शराब का नशा उनके सर चढ़ के बोलने लगा तो अपनी मर्यादा भूल कर आ गए वो भी "बार बालाओं" के साथ मैंदान में. वो भी लगे उनके साथ ठुमके लगाने. उनके उस अशलील ठुमकों को देख कर मुझे अपनी आँखों पर यकीं नहीं हो रहा था कि ये जीरादेई जैसे पवित्र भूमी का प्रतिनिधित्व करते हैं और प्रेस के सामने विधायक जी कह रहे हैं कि "बुरा न मानो होली है" मैंने सोचा की शराब के नशे के साथ अगर सत्ता का भी नशा किसी के ऊपर चढ़ जाये तो इसका अंजाम यही होता है. सत्ता का नशा तो अच्छे अच्छों को बहका देता है.
अगर डा. राजेंद्र प्रसाद की आत्मा यह सब देख रही होगी तो वो भी फूट फूट कर रो रही होगी और सोच रही होगी कि "क्या इसी लोकतंत्र के लिए हम अंग्रेजों से लड़े थे." जीरादेई तो एक छोटा सा उदाहरण है आप सबों के सामने, लोकतंत्र का मज़ाक तो देश के हर हिस्से में अलग अलग तरीके से हमारे ये नेता उड़ा रहे हैं. क्या हम यूँ ही ये सब देखते रहेंगे? जितने भी नियम क़ानून बनते हैं वो हम आम जनता के लिए होता है. पर इनके लिए ये कुछ नहीं होता. अगर कोई सरकारी पदाधिकारी ये दुस्साहस करता तो अब तक उसे उसके पद से निष्कासित कर दिया गया होता पर इनको कौन कहेगा?
आप ही सोचिये किसी भी ऑफिस को चपरासी भी चाहिए तो कम से कम दसवी पास की योग्यता रखी जाती है. लेकिन जो आपका देश चला रहा है, आपके लिए नियम क़ानून निर्धारित कर रहा है, उस पद पर जाने की क्या योग्यता है, बस अंगूठा छाप? कितनी निंदनीय व्यवस्था है, मेरी समझ से अब वक्त आ गया है की इस पर बहस छिड़ना चाहिए, लोगों को इसके बारे में सोचना चाहिए. एक चीज़ मैं यहाँ और बता देना चाहता हूँ कि अगर इस इंतज़ार में मत रहिएगा कि ये नेता इस बारे में कुछ सोचेंगे तो ये तो कभी नहीं होगा, क्यूंकि इससे इनकी कुर्सी हिल जाएगी. इसलिए हमें आगे आना होगा. तभी इस देश का दुर्भाग्य बदलेगा.
शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010
ख़त्म हो रहा बचपन.............
आज एक अजीब से दुर्घटना मेरे साथ हुई. आज दिन के करीब २बजे के आस-पास मैं नॉएडा के मार्केट सेक्टर-18 गया हुआ था. उस बाज़ार में मैं बड़े आराम से अपनी मोटर साईकिल चला रहा था. आगे जा कर मुझे दाएँ मुड़ना था कि मैंने देखा एक कार दनदनाती हुई आई और दायी तरफ मुड गयी मैंने अपनी मोटर साइकिल में ब्रेक लगाया. मैं कुछ समझ ही पाता कि अचानक वो कार उसी स्पीड में दनदनाती हुई पीछे कि तरफ आने लगी. मुझे लग गया कि अब धक्का लगने वाला है और एक जोर कि वहां आवाज़ आई "धडाम " और कार ने पीछे से मेरी मोटर साइकिल में धक्का मार दिया. ये सब कुछ इतनी रफ़्तार में हुआ कि मुझे कुछ समझने का मौका ही नहीं मिला. उसके बाद का नज़ारा यही था कि मेरी मोटर साइकिल अचेता अवस्था में लेटा पड़ा था और मैं बगल में खड़ा हो कर उसे निहार रहा था. मुझे बहुत जोर का गुस्सा आया कि ये क्या तरीका है गाडी चलाने का. मैं बहुत गुस्से में गाडी कि तरफ जा कर शीशे पर ड्राईवर को बाहर निकलने का इशारा किया . पर जब मैंने ड्राईवर को देखा तो मैं स्तब्ध रह गया, एक लड़की स्कूल ड्रेस में बाहर निकली. उसे देख कर ऐसा लगा की मुश्किल से वो आठवीं या नवमी क्लास की छात्रा होगी. बाहर निकलते ही अंग्रेजी के कुछ शब्द, अमूमन जो ऐसे मौके पे लोग छोड़ना पसंद करते हैं, वही शब्द कई बार मेरे ऊपर पर छोड़े जा रहे थे. जैसे कि sorry, sorry i am extremely sorry, i m realy sorry. पर मुझे ये समझ नहीं आ रहा था कि इस बच्चे को मैं क्या कहूँ? शायद इसे देख कर मेरा गुस्सा काफूर हो चूका था. मुझे समझ नहीं आ रहा था जिन बच्चे के हाथ माँ-बाप कि उंगलिया पकड़ने वाले हैं उनके हाथ में इतनी लम्बी कार के स्टेरिंग किसने दिया.
सच बताऊँ तो इस दुर्घटना के कई घंटे बीत चुके हैं, लेकिन मैं अभी तक आत्म मंथन में लगा हुआ हूँ कि इस दुर्घटना का दोष मैं किसे दूं, इस बच्चे को जो गाडी चला रही थी या इनके माता-पिता को जिन्हें ये पता ही नहीं है कि उनके बच्चे कहाँ हैं और वो क्या कर रहे हैं. असल में जितने भी मेट्रो शहर हैं वहां सब जगह एक अंधी दौड़ मची पड़ी है. कोई पैसे के लिए भाग रहा है, तो कोई नाम के लिए, तो किसी को किसी से आगे निकलना है. इस अंधी दौड़ में लोग अपने परिवार को भूल गए हैं. हर किसी के दायरे सिमटते जा रहे हैं. उनके बच्चे कहाँ है और क्या कर रहे हैं किसी को कुछ भी नहीं पता होता है.
वो लड़की जो कार ले कर बाज़ार में निकली थी तो हो सकता है उसके माता-पिता को पता भी न हो कि उनकी बेटी आज कार से स्कूल गयी है और अभी बाज़ार में घूम रही है. या ये भी हो सकता है कि माता-पिता ने कार दिया हो कि उसे कही लाने ले जाने का झंझट ही न रहे. इसमें आप क्या कहेंगे इसमें दोष उस लड़की का है या उनके माता-पिता का जिनके पास इतना भी वक़्त नहीं है कि अपने बच्चों के बारे में पता कर सके. माता-पिता यह समझते हैं कि बच्चों को अगर हम समय पर पैसे दे दें तो हमारी जिम्मेदारी ख़तम हो गयी. पर ऐसा नहीं है. पहली बात, कि आपको अपने बच्चों के लिए समय निकलना पड़ेगा. दूसरी बात, कि ये उम्र का ऐसा पड़ाव होता है जब हर कोई इस उम्र में हर सीमा लांघना चाहता है. पर घर के बड़ों का काम होता है उन सीमाओं कि मर्यादा को बताना. मुझे यहाँ स्कूल के बच्चों को देख कर कभी-कभी शर्म सी आती है पर इसमें मैं दोष किसे दूं?
बचपन में मैं सुना था कि बच्चों का मन बिलकुल कुम्हार की कच्ची मिटटी के सामान होता है इसे हम जैसा आकार देना चाहें दे सकते हैं. अगर ये जो कुम्हार रूपी माता-पिता अपनी कच्ची मिटटी को खुद आकार देने कि कोशिश करेंगे तो उनकी मिटटी का बर्तन निश्चित तौर पर अच्छा ही बनेगा. बस ध्यान रहे कि किसी कुम्हार को किराये पर ला कर अपनी मिटटी उन्हें ना सौंप दें. वरना फिर उस मिटटी का बर्तन वैसा ही बनेगा जैसा आज मुझे मिला था......
सच बताऊँ तो इस दुर्घटना के कई घंटे बीत चुके हैं, लेकिन मैं अभी तक आत्म मंथन में लगा हुआ हूँ कि इस दुर्घटना का दोष मैं किसे दूं, इस बच्चे को जो गाडी चला रही थी या इनके माता-पिता को जिन्हें ये पता ही नहीं है कि उनके बच्चे कहाँ हैं और वो क्या कर रहे हैं. असल में जितने भी मेट्रो शहर हैं वहां सब जगह एक अंधी दौड़ मची पड़ी है. कोई पैसे के लिए भाग रहा है, तो कोई नाम के लिए, तो किसी को किसी से आगे निकलना है. इस अंधी दौड़ में लोग अपने परिवार को भूल गए हैं. हर किसी के दायरे सिमटते जा रहे हैं. उनके बच्चे कहाँ है और क्या कर रहे हैं किसी को कुछ भी नहीं पता होता है.
वो लड़की जो कार ले कर बाज़ार में निकली थी तो हो सकता है उसके माता-पिता को पता भी न हो कि उनकी बेटी आज कार से स्कूल गयी है और अभी बाज़ार में घूम रही है. या ये भी हो सकता है कि माता-पिता ने कार दिया हो कि उसे कही लाने ले जाने का झंझट ही न रहे. इसमें आप क्या कहेंगे इसमें दोष उस लड़की का है या उनके माता-पिता का जिनके पास इतना भी वक़्त नहीं है कि अपने बच्चों के बारे में पता कर सके. माता-पिता यह समझते हैं कि बच्चों को अगर हम समय पर पैसे दे दें तो हमारी जिम्मेदारी ख़तम हो गयी. पर ऐसा नहीं है. पहली बात, कि आपको अपने बच्चों के लिए समय निकलना पड़ेगा. दूसरी बात, कि ये उम्र का ऐसा पड़ाव होता है जब हर कोई इस उम्र में हर सीमा लांघना चाहता है. पर घर के बड़ों का काम होता है उन सीमाओं कि मर्यादा को बताना. मुझे यहाँ स्कूल के बच्चों को देख कर कभी-कभी शर्म सी आती है पर इसमें मैं दोष किसे दूं?
बचपन में मैं सुना था कि बच्चों का मन बिलकुल कुम्हार की कच्ची मिटटी के सामान होता है इसे हम जैसा आकार देना चाहें दे सकते हैं. अगर ये जो कुम्हार रूपी माता-पिता अपनी कच्ची मिटटी को खुद आकार देने कि कोशिश करेंगे तो उनकी मिटटी का बर्तन निश्चित तौर पर अच्छा ही बनेगा. बस ध्यान रहे कि किसी कुम्हार को किराये पर ला कर अपनी मिटटी उन्हें ना सौंप दें. वरना फिर उस मिटटी का बर्तन वैसा ही बनेगा जैसा आज मुझे मिला था......
मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010
आधुनिकता की अंधी दौड़
कुछ दिनों पहले मैं अपने शहर पटना जा रहा था. मैं अपनी ट्रेन के नियत समय से पहले नयी दिल्ली स्टेशन पहुँच गया. ट्रेन भी अपने नियत समय से प्लेटफ़ॉर्म पर आ गयी और मैं ट्रेन के अन्दर दाखिल हो गया. मैंने अपना सामान अपने सीट के अन्दर अच्छी ढंग से डाल के अपने बैग से एक किताब निकाल कर आराम से बैठ गया. थोड़ी ही देर में ट्रेन नयी दिल्ली स्टेशन से निकल पड़ी और मैं भी अपने किताब के पन्नों में इस तरह व्यस्त हो गया कि मेरे आस-पास कौन आ कर बैठा है ये भी सुध मुझे नहीं रही. तभी थोड़ी देर बाद मेरे कानों में कुछ मीठी सी ध्वनि आई तो मैं नज़र घुमा के देखता हूँ कि मेरे बगल में एक लड़की बैठी हुई है और वो अपने मोबाइल फ़ोन पर किसी से बातें कर रही थी. दिखने में ख़ूबसूरत थी और किसी संभ्रांत परिवार कि लग रही थी और फैशन का मतलब उसे अच्छे ढंग से पता था ये उसके पहने हुए कपड़ों से प्रतीत हो रहा था. उसकी खूबसूरती और फैशनेबल कपड़ों का अंदाजा आप इससे ही लगा सकते हैं कि हमारे सीट के पास से गुजरने वाला हर व्यक्ति उसे अपनी भरपूर नज़रों से देख लेना चाहता था. एक चीज़ और मैंने गौर किया, कि कोई भी जब वहां से गुज़रता था तो उसकी गति हमारी सीट के पास आते ही धीमी हो जाती थी पर ऐसा लग रहा था वो लड़की इन सब चीजों से परवाह किये बिना लगातार फ़ोन पर बातें किये जा रही थी. उसकी उम्र ज्यादा से ज्यादा 19 साल कि होगी और उसकी बातों से मुझे लगा कि वो पटना कि ही रहने वाली है और दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी महाविद्यालय में पिछले साल ही दाखिला लिया है. मतलब करीब एक साल पहले दिल्ली आई है. उसकी बातचीत से मुझे पता चला कि वो अपने Ex Boy Friend से बात कर रही थी. जिससे उसका सम्बन्ध विच्छेद, अंग्रेजी में कहें तो break-up हो चूका था. दोनों के बीच ज़बरदस्त शीत युद्ध चल रहा था. लड़की भी उसे डांटने के अंदाज़ में उससे बात कर रही थी. बात जब ज्यादा बढ़ गयी तो उसने फ़ोन काट दिया और फिर दूसरा नंबर ड़ाल किया. ये उसके वर्तमान Boy Friend का था. फिर से बातों का सिलसिला शुरू हो गया. बातचीत के दौरान ही लड़की अपने Boy Friend को प्यार कि कसौटी पर मापना शुरू कर दिया और घंटों तक वो फ़ोन पर लगी रही. कभी नेटवर्क कट जाता कभी लाइन नहीं मिलती पर वो लगातार बातें करती जा रही थी.
सच बताऊँ तो मेरी आँखें फटी की फटी रह गयी थी उस लड़की की उम्र और उसके क्रिया-कलाप देख कर. उसकी उम्र १९ साल से ज्यादा नहीं होगी, एक साल पहले दिल्ली आई है और इस दौरान एक के बाद दूसरा Boy Friend. यह सब देख कर मुझे लगा की ये कैसी आधुनिकता की अंधी दौड़ है जिसमे हमारा युवा वर्ग भाग रहा है और हर किसी को अव्वल आने की तमना है. क्या यही भारत की सभ्यता संस्कृति है जिसे विदेशी आ कर अपनाना चाहते हैं, क्या यही युवा वर्ग हमारे देश का भविष्य हैं? देश पर आजादी के लिए कुर्बान होने वाले शहीद अगर ये सब देख रहे होंगे तो उनके मन में भी यही सवाल आ रहा होगा की "क्या यही है आजादी का मतलब?"
ये सिर्फ उस लड़की की बात नहीं है, आज का हर युवा इस अंधी दौड़ में भाग रहा है. अगर आपके पास Boy Friend या Girl Friend नहीं हैं तो आप पिछड़े हुए हैं, आपकी हसी उड़ाई जाएगी दोस्तों के बीच. क्या इसलिए हमें आजादी मिली थी? अगर युवा वर्ग ऐसा हो रहा है तो ये अत्यंत ही चिंताजनक बात है. क्यूंकि भविष्य में राष्ट्र निर्माण का जिम्मा इन्ही के हाथ में है. इसलिए मेरा अनुरोध है हिन्दुस्तान के युवावर्ग से की आप छणिक आत्मसंतुष्टि को छोड़ कर आत्मनिर्माण में अपना ध्यान लगायें. क्यूंकि हम आत्मनिर्माण के बाद ही राष्ट्रनिर्माण के बारे में सोच सकते हैं और अगर हम युवा वर्ग अपनी सोच बदलेंगे तभी अपना देश विकासशील से विकसित की कतार में आ पायेगा.
सच बताऊँ तो मेरी आँखें फटी की फटी रह गयी थी उस लड़की की उम्र और उसके क्रिया-कलाप देख कर. उसकी उम्र १९ साल से ज्यादा नहीं होगी, एक साल पहले दिल्ली आई है और इस दौरान एक के बाद दूसरा Boy Friend. यह सब देख कर मुझे लगा की ये कैसी आधुनिकता की अंधी दौड़ है जिसमे हमारा युवा वर्ग भाग रहा है और हर किसी को अव्वल आने की तमना है. क्या यही भारत की सभ्यता संस्कृति है जिसे विदेशी आ कर अपनाना चाहते हैं, क्या यही युवा वर्ग हमारे देश का भविष्य हैं? देश पर आजादी के लिए कुर्बान होने वाले शहीद अगर ये सब देख रहे होंगे तो उनके मन में भी यही सवाल आ रहा होगा की "क्या यही है आजादी का मतलब?"
ये सिर्फ उस लड़की की बात नहीं है, आज का हर युवा इस अंधी दौड़ में भाग रहा है. अगर आपके पास Boy Friend या Girl Friend नहीं हैं तो आप पिछड़े हुए हैं, आपकी हसी उड़ाई जाएगी दोस्तों के बीच. क्या इसलिए हमें आजादी मिली थी? अगर युवा वर्ग ऐसा हो रहा है तो ये अत्यंत ही चिंताजनक बात है. क्यूंकि भविष्य में राष्ट्र निर्माण का जिम्मा इन्ही के हाथ में है. इसलिए मेरा अनुरोध है हिन्दुस्तान के युवावर्ग से की आप छणिक आत्मसंतुष्टि को छोड़ कर आत्मनिर्माण में अपना ध्यान लगायें. क्यूंकि हम आत्मनिर्माण के बाद ही राष्ट्रनिर्माण के बारे में सोच सकते हैं और अगर हम युवा वर्ग अपनी सोच बदलेंगे तभी अपना देश विकासशील से विकसित की कतार में आ पायेगा.
शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010
आम और ख़ास के बीच का फ़र्क
आज मुझे राहुल गाँधी के मुंबई दौरे के दौरान महाराष्ट्र सरकार द्वारा की गयी मुंबई की चाक चौबंद व्यवस्था को देख कर बहुत ख़ुशी हुई. ख़ुशी इस बात की नहीं हुई कि राहुल गाँधी कि सुरक्षा में सरकार सफल रही और उनकी यात्रा सफल हो गयी. बल्कि ख़ुशी इस बात कि हुई है कि जो शिव सेना और मनसे बेलगाम घोड़ों कि तरह मुंबई में आतंक मचाते रहते हैं, उनको काबू कर लिया. असल में कल शिव सेना का एलान था कि वो राहुल गाँधी को काला झंडा दिखा कर विरोद्ध प्रदर्शन करेंगे. लेकिन राहुल कल मुंबई के सड़कों पर इस तरह से फिरते रहे जैसे कोई खुल्ला शेर घूम रहा हो और किसी कि मजाल नहीं कि आस पास कोई फटक जाये. राहुल गाँधी तो मुंबई कि धड़कन कहलाने वाली लोकल ट्रेन में भी आम लोगों के बीच पहुँच गए. मैं किसी न्यूज़ चैनल पर देख भी रहा था कि किस तरह वो आम लोगों से बढ़-चढ के हाथ मिला रहे थे. ये अच्छा लगा कि हमारा नेता आम जनता कि बीच है. इसका पूरा श्रेय मैं वहां कि सरकार को देना चाहता हूँ. क्यूंकि उन्होंने दिखा दिया कि प्रशासन क्या चीज़ होती है, वो अगर चाह ले तो एक पत्ता भी न हिले.
पर फिर मेरे दिमाग में एक बात आयी कि, क्या गत वर्ष जब उत्तर भारतीओं पर जो हमले हो रहे थे उस वक़्त सरकार इसे रोकना नहीं चाह रही थी? उस वक़्त भी तो यहाँ कांग्रेस कि ही सरकार थी. राहुल गाँधी के मुबई दौरे के एक दिन पहले शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए करीब 300 से ऊपर शिव सैनिक गिरफ्तार किये गए. पर कोई मुझे ज़रा ये बता दे कि जब यही शिव सैनिक उत्तर भारतियों के ऊपर सड़क पर, ट्रेन में, परीक्षा केन्द्रों पर बेतहाशा हमले कर रहे थे उस वक़्त यही सरकार या इन्ही कि पुलिस 30 शिव सैनिकों को भी गिरफ्तार नहीं कर पाई थी और आज 300 से ऊपर गिरफ्तारियां हो गयी? हद तो तब हो गयी थी जब मैंने देखा कि मुंबई पुलिस को उस वक़्त जहाँ उत्तर भारतियों कि सुरक्षा में लगाना चाहिए था वहां ये उन्हें ट्रेनों में बिठा कर वापस भेजने के काम में लगा दिए गए थे. मतलब ये हुआ कि "गरीबी मत मिटाओ, गरीबों को मिटा दो." पर कल राहुल गाँधी के मुबई दौरे के दौरान सारी पुलिस फोर्स एक पैर पर नाच रही थी. यहाँ तक कि मुंबई पुलिस कमिशनर खुद इस तरह से भाग रहे थे जैसे कोई एक सिपाही हो और जब एक आम आदमी अपनी गुहार ले कर इनके पास जाता है तो इनसे मिलने में उसे महीनो लग जाते हैं. यहाँ तो यही निष्कर्ष निकलता है कि राहुल गाँधी इस सरकार के सर्वेसर्वा हैं तो उनके लिए सरकार सबकुछ कर सकती है और आम जनता जो ऐसे ही लोगों को ख़ास बना कर भेजती है, वो मरती रहे इसका दर्द कोई सुनने वाला नहीं है?
क्या इसका मतलब मैं यही समझूं कि "लोकतंत्र में सुरक्षा, सविंधान के अनुसार नहीं मिलती है बल्कि सुरक्षा हैसियत देख कर दी जाती है" शायद यही आधुनिक युग के लोकतंत्र कि परिभाषा है." अगर आज यही लोकतंत्र कि परिभाषा बन गयी है तो हमें आगे आना होगा. इस परिभाषा को बदल कर एक नए भारत का निर्माण करना होगा और आशा करता हूँ कि आप भी मेरे इस विचार से सहमत होंगे.
पर फिर मेरे दिमाग में एक बात आयी कि, क्या गत वर्ष जब उत्तर भारतीओं पर जो हमले हो रहे थे उस वक़्त सरकार इसे रोकना नहीं चाह रही थी? उस वक़्त भी तो यहाँ कांग्रेस कि ही सरकार थी. राहुल गाँधी के मुबई दौरे के एक दिन पहले शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए करीब 300 से ऊपर शिव सैनिक गिरफ्तार किये गए. पर कोई मुझे ज़रा ये बता दे कि जब यही शिव सैनिक उत्तर भारतियों के ऊपर सड़क पर, ट्रेन में, परीक्षा केन्द्रों पर बेतहाशा हमले कर रहे थे उस वक़्त यही सरकार या इन्ही कि पुलिस 30 शिव सैनिकों को भी गिरफ्तार नहीं कर पाई थी और आज 300 से ऊपर गिरफ्तारियां हो गयी? हद तो तब हो गयी थी जब मैंने देखा कि मुंबई पुलिस को उस वक़्त जहाँ उत्तर भारतियों कि सुरक्षा में लगाना चाहिए था वहां ये उन्हें ट्रेनों में बिठा कर वापस भेजने के काम में लगा दिए गए थे. मतलब ये हुआ कि "गरीबी मत मिटाओ, गरीबों को मिटा दो." पर कल राहुल गाँधी के मुबई दौरे के दौरान सारी पुलिस फोर्स एक पैर पर नाच रही थी. यहाँ तक कि मुंबई पुलिस कमिशनर खुद इस तरह से भाग रहे थे जैसे कोई एक सिपाही हो और जब एक आम आदमी अपनी गुहार ले कर इनके पास जाता है तो इनसे मिलने में उसे महीनो लग जाते हैं. यहाँ तो यही निष्कर्ष निकलता है कि राहुल गाँधी इस सरकार के सर्वेसर्वा हैं तो उनके लिए सरकार सबकुछ कर सकती है और आम जनता जो ऐसे ही लोगों को ख़ास बना कर भेजती है, वो मरती रहे इसका दर्द कोई सुनने वाला नहीं है?
क्या इसका मतलब मैं यही समझूं कि "लोकतंत्र में सुरक्षा, सविंधान के अनुसार नहीं मिलती है बल्कि सुरक्षा हैसियत देख कर दी जाती है" शायद यही आधुनिक युग के लोकतंत्र कि परिभाषा है." अगर आज यही लोकतंत्र कि परिभाषा बन गयी है तो हमें आगे आना होगा. इस परिभाषा को बदल कर एक नए भारत का निर्माण करना होगा और आशा करता हूँ कि आप भी मेरे इस विचार से सहमत होंगे.
गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010
राजनीति का गिरता स्तर.......
आज पता नहीं क्यूँ मुझे मेरा बचपन याद आ रहा है. बचपन में मेरे पिता जी हमेशा मुझसे कहा करते थे कि "बेटा कुछ भी बोलने के पहले पांच बार सोच लिया करो, क्यूंकि एकबार बात आपके मुह से निकल जाती है तो फिर वापस नहीं आती और इस चीज़ का भी ध्यान रखना चाहिए कि मैं जो कुछ भी कहने जा रहा हूँ कही इससे किसी का दिल ना दुखे"
जहाँ तक मैं सोचता हूँ ये संस्कार और शिक्षा हर किसी को अपने घर और परिवार में किसी न किसी के द्वारा मिल ही जाती है. पर जब मैंने कल बाल ठाकरे का राहुल गाँधी के खिलाफ दिया गया कथन सुना तो मैं बड़ा आश्चर्यचकित रह गया. मेरे दिमाग में बस एक ही बात आ रही थी, कि क्या इनके परिवार में कोई ऐसा बुज़ुर्ग नहीं था जिनसे इन्हें अपर्युक्त संस्कार मिल सकता था जो हमें बचपन में मिला है. श्री बाला साहेब ठाकरे जी का कहना था कि " राहुल गाँधी का दिमागी संतुलन ख़राब हो गया है क्यूंकि उनकी शादी कि उम्र निकल चुकी है और लोगों की सही उम्र में शादी नहीं होती है तो ऐसी ही बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं" इस तरह का वक्तव्य इतने बुज़ुर्ग नेता के लिए शोभा नहीं देता. वैसे जब मैंने ठाकरे साहेब का ये वक्तव्य सुना तो मुझे लगा कि उन्हें उनकी बात ही याद दिलानी चाहिए कि छः साल तक केंद्र सरकार के मज़े चखने के लिए उन्होंने अटल जी का दामन पकड़ा था जो खुद ही अविवाहित हैं. तो क्या मैं इसका मतलब यह सोचूं कि अटल जी का दिमागी संतुलन बिगड़ गया था जिस कारण ठाकरे साहेब कि पार्टी को केंद्र सरकार में शामिल किया. जहाँ तक मुझे स्मरण होता है कि अपने गत वर्ष के महाराष्ट्र चुनाव में जिस नरेन्द्र मोदी को स्टार प्रचारक बना कर ले आये थे वो भी अविवाहित हैं और तो और बाल ठाकरे ने ऐसा कह कर देश के सर्वोच्च पद के ऊपर भी एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है क्यूंकि हमारी वर्तमान राष्ट्रपति महामहिम प्रतिभा पाटिल के पहले जो हमारे देश के राष्ट्रपति थे श्री अबुल कलाम, वो भी तो अविवाहित ही थे.
मुझे समझ नहीं आता है कि क्यूँ ये लोग अपनी ओछी राजनीति के चक्कर में देश कि गरिमा दाँव पर लगा देते हैं. शाहरुख़ खान ने अगर IPL में पाकिस्तानी क्रिकेटर के समर्थन में थोडा सा बोल दिया तो इतना बवाल मचा रहे हैं. लेकिन जब 2004 में पाकिस्तानी क्रिकेटर जावेद मियाँदाद, जो अब दाऊद इब्राहीम का समधी भी है, इनके घर "मातोश्री" में मेहमान नवाजी कर रहे थे तब इनकी सेखी कहाँ गयी थी. उस समय तो सारा ठाकरे कुनबा उनके साथ एक फोटो खिचवाने और मेजबानी करने में व्यस्त थे.
मैं यहाँ श्री राहुल गाँधी जी को दिल से धन्यवाद देना चाहता हूँ, क्यूंकि उन्होंने ठाकरे साहेब के इस असंयमित भाषा के जवाब में भी संयम नहीं खोया और बड़े ही अच्छे ढंग से उनका जवाब दे रहे हैं, जबकि ठाकरे साहेब ने न सिर्फ राहुल गाँधी पर व्यंग किया है बल्कि उनके परिवार पर भी व्यंग के बाण छोड़े हैं, उन्होंने तो सोनिया गाँधी को इटालियन मम्मी तक कह दिया. अब मुझे फिर से बचपन में सुनी हुई एक बात याद आ रही है कि " एक उम्र के बाद बच्चे और बूढों कि मानसिकता बिलकुल सामान हो जाती है, उनकी हर एक हरकत बच्चों जैसी हो जाती है" तो शाएद ठाकरे साहेब एक उम्र के पडाव को पार कर चुके हैं जहाँ से उनकी बच्चों वाली मानसिकता शुरू हो चुकी है. वैसे भी किसी सरकारी संस्थानों में ६० वर्ष के बाद व्यक्ति को अवकाश दे दिया जाता है, तो इनकी उम्र तो इससे बहुत ज्यादा भी हो चुकी है अतः इन्हें भी पूर्ण अवकाश पर चले जाना चाहिए.
जहाँ तक मैं सोचता हूँ ये संस्कार और शिक्षा हर किसी को अपने घर और परिवार में किसी न किसी के द्वारा मिल ही जाती है. पर जब मैंने कल बाल ठाकरे का राहुल गाँधी के खिलाफ दिया गया कथन सुना तो मैं बड़ा आश्चर्यचकित रह गया. मेरे दिमाग में बस एक ही बात आ रही थी, कि क्या इनके परिवार में कोई ऐसा बुज़ुर्ग नहीं था जिनसे इन्हें अपर्युक्त संस्कार मिल सकता था जो हमें बचपन में मिला है. श्री बाला साहेब ठाकरे जी का कहना था कि " राहुल गाँधी का दिमागी संतुलन ख़राब हो गया है क्यूंकि उनकी शादी कि उम्र निकल चुकी है और लोगों की सही उम्र में शादी नहीं होती है तो ऐसी ही बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं" इस तरह का वक्तव्य इतने बुज़ुर्ग नेता के लिए शोभा नहीं देता. वैसे जब मैंने ठाकरे साहेब का ये वक्तव्य सुना तो मुझे लगा कि उन्हें उनकी बात ही याद दिलानी चाहिए कि छः साल तक केंद्र सरकार के मज़े चखने के लिए उन्होंने अटल जी का दामन पकड़ा था जो खुद ही अविवाहित हैं. तो क्या मैं इसका मतलब यह सोचूं कि अटल जी का दिमागी संतुलन बिगड़ गया था जिस कारण ठाकरे साहेब कि पार्टी को केंद्र सरकार में शामिल किया. जहाँ तक मुझे स्मरण होता है कि अपने गत वर्ष के महाराष्ट्र चुनाव में जिस नरेन्द्र मोदी को स्टार प्रचारक बना कर ले आये थे वो भी अविवाहित हैं और तो और बाल ठाकरे ने ऐसा कह कर देश के सर्वोच्च पद के ऊपर भी एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है क्यूंकि हमारी वर्तमान राष्ट्रपति महामहिम प्रतिभा पाटिल के पहले जो हमारे देश के राष्ट्रपति थे श्री अबुल कलाम, वो भी तो अविवाहित ही थे.
मुझे समझ नहीं आता है कि क्यूँ ये लोग अपनी ओछी राजनीति के चक्कर में देश कि गरिमा दाँव पर लगा देते हैं. शाहरुख़ खान ने अगर IPL में पाकिस्तानी क्रिकेटर के समर्थन में थोडा सा बोल दिया तो इतना बवाल मचा रहे हैं. लेकिन जब 2004 में पाकिस्तानी क्रिकेटर जावेद मियाँदाद, जो अब दाऊद इब्राहीम का समधी भी है, इनके घर "मातोश्री" में मेहमान नवाजी कर रहे थे तब इनकी सेखी कहाँ गयी थी. उस समय तो सारा ठाकरे कुनबा उनके साथ एक फोटो खिचवाने और मेजबानी करने में व्यस्त थे.
मैं यहाँ श्री राहुल गाँधी जी को दिल से धन्यवाद देना चाहता हूँ, क्यूंकि उन्होंने ठाकरे साहेब के इस असंयमित भाषा के जवाब में भी संयम नहीं खोया और बड़े ही अच्छे ढंग से उनका जवाब दे रहे हैं, जबकि ठाकरे साहेब ने न सिर्फ राहुल गाँधी पर व्यंग किया है बल्कि उनके परिवार पर भी व्यंग के बाण छोड़े हैं, उन्होंने तो सोनिया गाँधी को इटालियन मम्मी तक कह दिया. अब मुझे फिर से बचपन में सुनी हुई एक बात याद आ रही है कि " एक उम्र के बाद बच्चे और बूढों कि मानसिकता बिलकुल सामान हो जाती है, उनकी हर एक हरकत बच्चों जैसी हो जाती है" तो शाएद ठाकरे साहेब एक उम्र के पडाव को पार कर चुके हैं जहाँ से उनकी बच्चों वाली मानसिकता शुरू हो चुकी है. वैसे भी किसी सरकारी संस्थानों में ६० वर्ष के बाद व्यक्ति को अवकाश दे दिया जाता है, तो इनकी उम्र तो इससे बहुत ज्यादा भी हो चुकी है अतः इन्हें भी पूर्ण अवकाश पर चले जाना चाहिए.
मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010
उफ़ ये राजनीति
आज सुबह सुबह चाय की चुस्की के साथ अखबार की ताज़ी ख़बरों का मज़ा ले रहा था, की अचानक मेरी नज़र राहुल गाँधी के बयान पर पड़ी. बिहार भ्रमण के दौरान वो उत्तर भारतियों पर हो रहे हमले के बारे में बोल रहे थे की "मैं चुप नहीं बैठूँगा अगर उत्तर भारतियों(उ.प्र, बिहार) को हिन्दुस्तान के किसी भी हिस्से में काम करने या जीवन यापन करने से रोका गया तो"
जब मेरी नज़र इस समाचार पर पड़ी तो मुझे अंतर्मन से ख़ुशी हुई की चलो एक राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय नेता ने देश के इस दुर्भाग्य के बारे में सोचा तो. पर फिर मुझे लगा की गत दिनों कोई ऐसी बात या फिर कोई हमला तो हिंदी भाषियों पर हुआ नहीं है. फिर ये राहुल गांधी का उत्तर भारतीय प्रेम अचानक कैसे जग गया? जहाँ तक मुझे स्मरण है की गत वर्ष मुंबई में ही नहीं बल्कि पूरे महाराष्ट्र में उत्तर भारतियों पर हमले हो रहे थे उस वक़्त कहाँ थे हमारे ये राष्ट्रीय नेता. शायद उन दिनों महाराष्ट्र में चुनाव होना था और ये अगर उन हमलों के खिलाफ बोलते ये हमलावरों के खिलाफ कोई कारवाई करते तो इसका असर उनके मराठी वोट बैंक पर पड़ता. इसलिए बस मरने दिया उन्हें वहां और आज बिहार में चुनाव होने वाले हैं तो इनका उत्तर भारतीय प्रेम जग उठा है. क्यूंकि सवाल फिर से वोट बैंक का आ गया है. क्या ये राजनेता इस स्वार्थ से ऊपर उठ कर काम नहीं कर सकते?
जहाँ तक मेरी जानकारी कहती है की, ये मराठी के हित में मराठियों का झंडा बुलंद करने वाले और अपने आप को "मी मराठी" कहने वाले "ठाकरे & कंपनी" खुद मध्य प्रदेश से जा कर वहां बसे हैं. जब आप खुद अपने स्वार्थ के लिए वहां घुस गए तो दूसरों को रोकने का अधिकार आपको किसने दे दिया? कुछ दिनों पहले ठाकरे साहब की पार्टी ने आष्ट्रेलिया में भारतियों पर हो रहे हमले पर जबरदस्त विरोध जताया था. तो मुझे हँसी सी आ गयी उनके इस बयान को पढ़ कर और मैं सोचने पर मजबूर हो गया की " जो अपने देश में खुद इन चीजों को बढ़ावा दे रहा है वो दूसरों को नसीहत कैसे दे सकता है?"
मेरे विचार से महाराष्ट्र में जो भी हमले हो रहे हैं ये सब मीडिया का ध्यान आकृष्ट करने के लिए है. इन लोगों का मानना है की कुछ ऐसा करो जिससे समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ट पर इनकी तस्वीर छपती रहे. इन्हें भी कोई मतलब नहीं है मराठियों और मराठी भाषा से. अगर इनके अन्दर इतना ही मराठी भाषा का प्यार होता तो राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के बच्चे अंग्रेजी स्कूल में नहीं मराठी स्कूल में पढ़ रहे होते.
कभी-कभी मैं सोचता हूँ की अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो क्या एक दिन ऐसा आ जायेगा जब हमें अपने ही देश में एक प्रदेश से दुसरे प्रदेश जाने के लिए पासपोर्ट का प्रयोग करना पड़ेगा? मेरा नम्र निवेदन है हमारे राजनेताओं से की कृपया क्षेत्र, भाषा, प्रान्त, धर्म और जाति से ऊपर उठ कर अगर राजनीति करें तो हमारे देश का मान बना रहेगा. हमारे राजनेता अगर अवसरवादी राजनीति छोड़ कर देश की तरक्की पर अपना ध्यान देंगे तो शायद हमारा देश कहाँ से कहाँ पहुँच जायेगा.
जब मेरी नज़र इस समाचार पर पड़ी तो मुझे अंतर्मन से ख़ुशी हुई की चलो एक राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय नेता ने देश के इस दुर्भाग्य के बारे में सोचा तो. पर फिर मुझे लगा की गत दिनों कोई ऐसी बात या फिर कोई हमला तो हिंदी भाषियों पर हुआ नहीं है. फिर ये राहुल गांधी का उत्तर भारतीय प्रेम अचानक कैसे जग गया? जहाँ तक मुझे स्मरण है की गत वर्ष मुंबई में ही नहीं बल्कि पूरे महाराष्ट्र में उत्तर भारतियों पर हमले हो रहे थे उस वक़्त कहाँ थे हमारे ये राष्ट्रीय नेता. शायद उन दिनों महाराष्ट्र में चुनाव होना था और ये अगर उन हमलों के खिलाफ बोलते ये हमलावरों के खिलाफ कोई कारवाई करते तो इसका असर उनके मराठी वोट बैंक पर पड़ता. इसलिए बस मरने दिया उन्हें वहां और आज बिहार में चुनाव होने वाले हैं तो इनका उत्तर भारतीय प्रेम जग उठा है. क्यूंकि सवाल फिर से वोट बैंक का आ गया है. क्या ये राजनेता इस स्वार्थ से ऊपर उठ कर काम नहीं कर सकते?
जहाँ तक मेरी जानकारी कहती है की, ये मराठी के हित में मराठियों का झंडा बुलंद करने वाले और अपने आप को "मी मराठी" कहने वाले "ठाकरे & कंपनी" खुद मध्य प्रदेश से जा कर वहां बसे हैं. जब आप खुद अपने स्वार्थ के लिए वहां घुस गए तो दूसरों को रोकने का अधिकार आपको किसने दे दिया? कुछ दिनों पहले ठाकरे साहब की पार्टी ने आष्ट्रेलिया में भारतियों पर हो रहे हमले पर जबरदस्त विरोध जताया था. तो मुझे हँसी सी आ गयी उनके इस बयान को पढ़ कर और मैं सोचने पर मजबूर हो गया की " जो अपने देश में खुद इन चीजों को बढ़ावा दे रहा है वो दूसरों को नसीहत कैसे दे सकता है?"
मेरे विचार से महाराष्ट्र में जो भी हमले हो रहे हैं ये सब मीडिया का ध्यान आकृष्ट करने के लिए है. इन लोगों का मानना है की कुछ ऐसा करो जिससे समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ट पर इनकी तस्वीर छपती रहे. इन्हें भी कोई मतलब नहीं है मराठियों और मराठी भाषा से. अगर इनके अन्दर इतना ही मराठी भाषा का प्यार होता तो राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के बच्चे अंग्रेजी स्कूल में नहीं मराठी स्कूल में पढ़ रहे होते.
कभी-कभी मैं सोचता हूँ की अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो क्या एक दिन ऐसा आ जायेगा जब हमें अपने ही देश में एक प्रदेश से दुसरे प्रदेश जाने के लिए पासपोर्ट का प्रयोग करना पड़ेगा? मेरा नम्र निवेदन है हमारे राजनेताओं से की कृपया क्षेत्र, भाषा, प्रान्त, धर्म और जाति से ऊपर उठ कर अगर राजनीति करें तो हमारे देश का मान बना रहेगा. हमारे राजनेता अगर अवसरवादी राजनीति छोड़ कर देश की तरक्की पर अपना ध्यान देंगे तो शायद हमारा देश कहाँ से कहाँ पहुँच जायेगा.
कलयुग में भगवन शंकर
एक दिन सुबह की बात है. शायद नवरात्र का समय था, छुट्टी मनाने के मिजाज से मैं देर तक सोया हुआ था की अचानक मेरे कानोंमें कुछ कोतुहल सुनाई दिया जिससे मेरी नींद खुल गयी. मैं बाहर अपने दरवाजे पर आ कर देखता हूँ की स्वयं भगवन शंकर अपने अर्धनारीश्वर रूप में पधारे हुए हैं. मुझे अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था. मैं खुद को झकझोरते हुए जगाने की कोशिश कर रहा था की कही मैं स्वप्नलोक में तो नहीं हूँ. एक बार फिर आँख मलते हुए देखा तो पाया की ये अर्धनारीश्वर भगवान् शंकर नहीं उनके रूप में कोई और ही है जिसे कलयुगी भाषा में हिजड़ा या किन्नर कहते हैं. वो मुझे दिल से दुआएं दे रहा था. यह सब देख कर मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हो रहा था और मैं उसके पास जाने में हिचक रहा था. मैंने उसे दस रुपये के दो नोट दे कर चलता किया. वो मुझे वर्तमान और भविष्य के लिए ढेरों दुआएं देता हुआ चला गया. पर उसके जाने के बाद मैं ये सोचने लगा की इसी इंसान को जब मैंने अपनी आधे जगे और आधे सोये हुए अवस्था में भगवान् शंकर का अर्धनारीश्वर रूप समझ रहा था तो मेरे मन में इसके प्रति कितनी श्रद्धा जगी थी. शायद अगर सचमुच भगवान् शंकर इस रूप में उपस्थित हो जाते तो मेरे से ज्यादा भाग्यवान इस धरती पर कोई नहीं होता, पर जैसे ही मुझे लगा की ये हिजड़ा है तो अजीब सा घृणा का भाव मेरे मन में आ गया, क्या ये सही था?
कभी कभी मैं सोचता हूँ की लोग पुरुषों की तुलना भगवान् राम और विष्णु से करते हैं और स्त्रियों की तुलना माँ सीता और लक्ष्मी से. मैंने कई लोगों को कहते भी सुना है की "देखो दोनों की क्या जोड़ी है, लगता है जैसे राम और सीता हैं" पर आज तक किसी हिजड़े तुलना भगवन शंकर के अर्धनारीश्वर रूप से नहीं किया है. आज हमारे बिच ये सिर्फ मजाक का पात्र हैं. ज़रा सोचिये हर खुशियों में ये हमारे यहाँ आ कर लाखों दुआएं दे कर चले जाते हैं, हमारी हर ख़ुशी में शरीक होते हैं पर हमारा समाज इनके साथ कैसा बर्ताव करता है. क्या कभी हमने सोचा है की इन्हें भी उसी भगवान् ने बनाया है जिसने हमें बनाया है. तो हम कौन होते हैं इनका मजाक उड़ाने वाले? आगे से आप भी ध्यान रखना की अगर आप इनका मजाक उड़ा रहे हैं तो इसका मतलब है की आप भगवान् शंकर के अर्धनारीश्वर के रूप पर हस रहे हैं.
सहनशीलता
सह लिया था वह दुर्दिन हमने
जब छिना था तूने ताशकंद में भारत के लाल को
विस्मित हो गया हूँ यह जान कर
करके विस्फोट कर दिया अशांत भारत के भाल को
जान कर आज तक अनजान रहा
यह सोच कर की मिट न जाये देश से मानवता
कहलाते हो पाक पर तेरे इरादे कितने हैं नापाक
मिट ना पाई अबतक तेरे मन की दानवता
खंड खंड करके कश्मीर तो जलाया तूने
जला तो दिया था पंजाब भी
महाराष्ट्र में भी दिखाई अपने लपट तूने
देखो भष्म करना चाहा बंगाल भी
ऐ हिन्द वासियो आगे बढ़ो अपनी हूंकार से
बाधा लो भूगोल अपने हिन्दुस्तान का
बेशर्म आतंक का जो बन चूका है आज पर्याय
मिटा दो नाम उस कलंकी पकिस्तान का
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ (Atom)
