आज एक अजीब से दुर्घटना मेरे साथ हुई. आज दिन के करीब २बजे के आस-पास मैं नॉएडा के मार्केट सेक्टर-18 गया हुआ था. उस बाज़ार में मैं बड़े आराम से अपनी मोटर साईकिल चला रहा था. आगे जा कर मुझे दाएँ मुड़ना था कि मैंने देखा एक कार दनदनाती हुई आई और दायी तरफ मुड गयी मैंने अपनी मोटर साइकिल में ब्रेक लगाया. मैं कुछ समझ ही पाता कि अचानक वो कार उसी स्पीड में दनदनाती हुई पीछे कि तरफ आने लगी. मुझे लग गया कि अब धक्का लगने वाला है और एक जोर कि वहां आवाज़ आई "धडाम " और कार ने पीछे से मेरी मोटर साइकिल में धक्का मार दिया. ये सब कुछ इतनी रफ़्तार में हुआ कि मुझे कुछ समझने का मौका ही नहीं मिला. उसके बाद का नज़ारा यही था कि मेरी मोटर साइकिल अचेता अवस्था में लेटा पड़ा था और मैं बगल में खड़ा हो कर उसे निहार रहा था. मुझे बहुत जोर का गुस्सा आया कि ये क्या तरीका है गाडी चलाने का. मैं बहुत गुस्से में गाडी कि तरफ जा कर शीशे पर ड्राईवर को बाहर निकलने का इशारा किया . पर जब मैंने ड्राईवर को देखा तो मैं स्तब्ध रह गया, एक लड़की स्कूल ड्रेस में बाहर निकली. उसे देख कर ऐसा लगा की मुश्किल से वो आठवीं या नवमी क्लास की छात्रा होगी. बाहर निकलते ही अंग्रेजी के कुछ शब्द, अमूमन जो ऐसे मौके पे लोग छोड़ना पसंद करते हैं, वही शब्द कई बार मेरे ऊपर पर छोड़े जा रहे थे. जैसे कि sorry, sorry i am extremely sorry, i m realy sorry. पर मुझे ये समझ नहीं आ रहा था कि इस बच्चे को मैं क्या कहूँ? शायद इसे देख कर मेरा गुस्सा काफूर हो चूका था. मुझे समझ नहीं आ रहा था जिन बच्चे के हाथ माँ-बाप कि उंगलिया पकड़ने वाले हैं उनके हाथ में इतनी लम्बी कार के स्टेरिंग किसने दिया.
सच बताऊँ तो इस दुर्घटना के कई घंटे बीत चुके हैं, लेकिन मैं अभी तक आत्म मंथन में लगा हुआ हूँ कि इस दुर्घटना का दोष मैं किसे दूं, इस बच्चे को जो गाडी चला रही थी या इनके माता-पिता को जिन्हें ये पता ही नहीं है कि उनके बच्चे कहाँ हैं और वो क्या कर रहे हैं. असल में जितने भी मेट्रो शहर हैं वहां सब जगह एक अंधी दौड़ मची पड़ी है. कोई पैसे के लिए भाग रहा है, तो कोई नाम के लिए, तो किसी को किसी से आगे निकलना है. इस अंधी दौड़ में लोग अपने परिवार को भूल गए हैं. हर किसी के दायरे सिमटते जा रहे हैं. उनके बच्चे कहाँ है और क्या कर रहे हैं किसी को कुछ भी नहीं पता होता है.
वो लड़की जो कार ले कर बाज़ार में निकली थी तो हो सकता है उसके माता-पिता को पता भी न हो कि उनकी बेटी आज कार से स्कूल गयी है और अभी बाज़ार में घूम रही है. या ये भी हो सकता है कि माता-पिता ने कार दिया हो कि उसे कही लाने ले जाने का झंझट ही न रहे. इसमें आप क्या कहेंगे इसमें दोष उस लड़की का है या उनके माता-पिता का जिनके पास इतना भी वक़्त नहीं है कि अपने बच्चों के बारे में पता कर सके. माता-पिता यह समझते हैं कि बच्चों को अगर हम समय पर पैसे दे दें तो हमारी जिम्मेदारी ख़तम हो गयी. पर ऐसा नहीं है. पहली बात, कि आपको अपने बच्चों के लिए समय निकलना पड़ेगा. दूसरी बात, कि ये उम्र का ऐसा पड़ाव होता है जब हर कोई इस उम्र में हर सीमा लांघना चाहता है. पर घर के बड़ों का काम होता है उन सीमाओं कि मर्यादा को बताना. मुझे यहाँ स्कूल के बच्चों को देख कर कभी-कभी शर्म सी आती है पर इसमें मैं दोष किसे दूं?
बचपन में मैं सुना था कि बच्चों का मन बिलकुल कुम्हार की कच्ची मिटटी के सामान होता है इसे हम जैसा आकार देना चाहें दे सकते हैं. अगर ये जो कुम्हार रूपी माता-पिता अपनी कच्ची मिटटी को खुद आकार देने कि कोशिश करेंगे तो उनकी मिटटी का बर्तन निश्चित तौर पर अच्छा ही बनेगा. बस ध्यान रहे कि किसी कुम्हार को किराये पर ला कर अपनी मिटटी उन्हें ना सौंप दें. वरना फिर उस मिटटी का बर्तन वैसा ही बनेगा जैसा आज मुझे मिला था......
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