सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

रो पड़ी डा. राजेंद्र प्रसाद की आत्मा .......

जीरादेई, बिहार के सीवान जिले का एक छोटा सा गाँव. ये एक ऐसा गाँव है जिसने देश को प्रथम राष्ट्रपति दिया. शायद यह गाँव उसी दिन इतिहास के पन्नों में चला गया. डा. राजेंद्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने और उसी दिन से ये बिहार के एक पवित्र गाँव में इसकी गिनती शुरू हो गयी. लोगों का मानना था की कुछ तो बात है यहाँ की मिट्टी में की ऐसी विलक्षण प्रतिभा का जन्म यहाँ हुआ है. राजेंद्र बाबू ने जीरादेई का नाम पूरे भारतवर्ष में ऊँचा किया.

पर कुछ दिनों पहले जीरादेई एक बार फिर लोगों के सामने आया. यह गाँव एक बार फिर से लोगों के आकर्षण का केंद्र बना, पर मैं समझ नहीं पाया कि यह कौन सी प्रतिभा थी. असल में पिछले दिनों बिहार कि राजधानी पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने "महादलित रैली" का आयोजन करवाया था. इसी सिलसिले में भाग लेने जीरादेई से कुछ लोग आये हुए थे जो वही के विधायक "श्याम बहादुर सिंह" के सरकारी आवास पर ठहरे हुए थे और पवित्र ग्राम "जीरादेई" के विधायक ने अपने लोगों के मनोरंजन के लिए "बार बालाओं" के नाच का भी कार्यक्रम रखा था. चलिए यहाँ तक तो किसी को शायद कोई आपत्ति नहीं होगी. लेकिन जब आधी रात के बाद विधायक जी पर शराब का नशा उनके सर चढ़ के बोलने लगा तो अपनी मर्यादा भूल कर आ गए वो भी "बार बालाओं" के साथ मैंदान में. वो भी लगे उनके साथ ठुमके लगाने. उनके उस अशलील ठुमकों को देख कर मुझे अपनी आँखों पर यकीं नहीं हो रहा था कि ये जीरादेई जैसे पवित्र भूमी का प्रतिनिधित्व करते हैं और प्रेस के सामने विधायक जी कह रहे हैं कि "बुरा न मानो होली है" मैंने सोचा की शराब के नशे के साथ अगर सत्ता का भी नशा किसी के ऊपर चढ़ जाये तो इसका अंजाम यही होता है. सत्ता का नशा तो अच्छे अच्छों को बहका देता है.

अगर डा. राजेंद्र प्रसाद की आत्मा यह सब देख रही होगी तो वो भी फूट फूट कर रो रही होगी और सोच रही होगी कि "क्या इसी लोकतंत्र के लिए हम अंग्रेजों से लड़े थे." जीरादेई तो एक छोटा सा उदाहरण है आप सबों के सामने, लोकतंत्र का मज़ाक तो देश के हर हिस्से में अलग अलग तरीके से हमारे ये नेता उड़ा रहे हैं. क्या हम यूँ ही ये सब देखते रहेंगे? जितने भी नियम क़ानून बनते हैं वो हम आम जनता के लिए होता है. पर इनके लिए ये कुछ नहीं होता. अगर कोई सरकारी पदाधिकारी ये दुस्साहस करता तो अब तक उसे उसके पद से निष्कासित कर दिया गया होता पर इनको कौन कहेगा?

आप ही सोचिये किसी भी ऑफिस को चपरासी भी चाहिए तो कम से कम दसवी पास की योग्यता रखी जाती है. लेकिन जो आपका देश चला रहा है, आपके लिए नियम क़ानून निर्धारित कर रहा है, उस पद पर जाने की क्या योग्यता है, बस अंगूठा छाप? कितनी निंदनीय व्यवस्था है, मेरी समझ से अब वक्त आ गया है की इस पर बहस छिड़ना चाहिए, लोगों को इसके बारे में सोचना चाहिए. एक चीज़ मैं यहाँ और बता देना चाहता हूँ कि अगर इस इंतज़ार में मत रहिएगा कि ये नेता इस बारे में कुछ सोचेंगे तो ये तो कभी नहीं होगा, क्यूंकि इससे इनकी कुर्सी हिल जाएगी. इसलिए हमें आगे आना होगा. तभी इस देश का दुर्भाग्य बदलेगा.

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

ख़त्म हो रहा बचपन.............

आज एक अजीब से दुर्घटना मेरे साथ हुई. आज दिन के करीब २बजे के आस-पास मैं नॉएडा के मार्केट सेक्टर-18 गया हुआ था. उस बाज़ार में मैं बड़े आराम से अपनी मोटर साईकिल चला रहा था. आगे जा कर मुझे दाएँ मुड़ना था कि मैंने देखा एक कार दनदनाती हुई आई और दायी तरफ मुड गयी मैंने अपनी मोटर साइकिल में ब्रेक लगाया. मैं कुछ समझ ही पाता कि अचानक वो कार उसी स्पीड में दनदनाती हुई पीछे कि तरफ आने लगी. मुझे लग गया कि अब धक्का लगने वाला है और एक जोर कि वहां आवाज़ आई "धडाम " और कार ने पीछे से मेरी मोटर साइकिल में धक्का मार दिया. ये सब कुछ इतनी रफ़्तार में हुआ कि मुझे कुछ समझने का मौका ही नहीं मिला. उसके बाद का नज़ारा यही था कि मेरी मोटर साइकिल अचेता अवस्था में लेटा पड़ा था और मैं बगल में खड़ा हो कर उसे निहार रहा था. मुझे बहुत जोर का गुस्सा आया कि ये क्या तरीका है गाडी चलाने का. मैं बहुत गुस्से में गाडी कि तरफ जा कर शीशे पर ड्राईवर को बाहर निकलने का इशारा किया . पर जब मैंने ड्राईवर को देखा तो मैं स्तब्ध रह गया, एक लड़की स्कूल ड्रेस में बाहर निकली. उसे देख कर ऐसा लगा की मुश्किल से वो आठवीं या नवमी क्लास की छात्रा होगी. बाहर निकलते ही अंग्रेजी के कुछ शब्द, अमूमन जो ऐसे मौके पे लोग छोड़ना पसंद करते हैं, वही शब्द कई बार मेरे ऊपर पर छोड़े जा रहे थे. जैसे कि sorry, sorry i am extremely sorry, i m realy sorry. पर मुझे ये समझ नहीं आ रहा था कि इस बच्चे को मैं क्या कहूँ? शायद इसे देख कर मेरा गुस्सा काफूर हो चूका था. मुझे समझ नहीं आ रहा था जिन बच्चे के हाथ माँ-बाप कि उंगलिया पकड़ने वाले हैं उनके हाथ में इतनी लम्बी कार के स्टेरिंग किसने दिया.

सच बताऊँ तो इस दुर्घटना के कई घंटे बीत चुके हैं, लेकिन मैं अभी तक आत्म मंथन में लगा हुआ हूँ कि इस दुर्घटना का दोष मैं किसे दूं, इस बच्चे को जो गाडी चला रही थी या इनके माता-पिता को जिन्हें ये पता ही नहीं है कि उनके बच्चे कहाँ हैं और वो क्या कर रहे हैं. असल में जितने भी मेट्रो शहर हैं वहां सब जगह एक अंधी दौड़ मची पड़ी है. कोई पैसे के लिए भाग रहा है, तो कोई नाम के लिए, तो किसी को किसी से आगे निकलना है. इस अंधी दौड़ में लोग अपने परिवार को भूल गए हैं. हर किसी के दायरे सिमटते जा रहे हैं. उनके बच्चे कहाँ है और क्या कर रहे हैं किसी को कुछ भी नहीं पता होता है.

वो लड़की जो कार ले कर बाज़ार में निकली थी तो हो सकता है उसके माता-पिता को पता भी न हो कि उनकी बेटी आज कार से स्कूल गयी है और अभी बाज़ार में घूम रही है. या ये भी हो सकता है कि माता-पिता ने कार दिया हो कि उसे कही लाने ले जाने का झंझट ही न रहे. इसमें आप क्या कहेंगे इसमें दोष उस लड़की का है या उनके माता-पिता का जिनके पास इतना भी वक़्त नहीं है कि अपने बच्चों के बारे में पता कर सके. माता-पिता यह समझते हैं कि बच्चों को अगर हम समय पर पैसे दे दें तो हमारी जिम्मेदारी ख़तम हो गयी. पर ऐसा नहीं है. पहली बात, कि आपको अपने बच्चों के लिए समय निकलना पड़ेगा. दूसरी बात, कि ये उम्र का ऐसा पड़ाव होता है जब हर कोई इस उम्र में हर सीमा लांघना चाहता है. पर घर के बड़ों का काम होता है उन सीमाओं कि मर्यादा को बताना. मुझे यहाँ स्कूल के बच्चों को देख कर कभी-कभी शर्म सी आती है पर इसमें मैं दोष किसे दूं?

बचपन में मैं सुना था कि बच्चों का मन बिलकुल कुम्हार की कच्ची मिटटी के सामान होता है इसे हम जैसा आकार देना चाहें दे सकते हैं. अगर ये जो कुम्हार रूपी माता-पिता अपनी कच्ची मिटटी को खुद आकार देने कि कोशिश करेंगे तो उनकी मिटटी का बर्तन निश्चित तौर पर अच्छा ही बनेगा. बस ध्यान रहे कि किसी कुम्हार को किराये पर ला कर अपनी मिटटी उन्हें ना सौंप दें. वरना फिर उस मिटटी का बर्तन वैसा ही बनेगा जैसा आज मुझे मिला था......

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

आधुनिकता की अंधी दौड़

कुछ दिनों पहले मैं अपने शहर पटना जा रहा था. मैं अपनी ट्रेन के नियत समय से पहले नयी दिल्ली स्टेशन पहुँच गया. ट्रेन भी अपने नियत समय से प्लेटफ़ॉर्म पर आ गयी और मैं ट्रेन के अन्दर दाखिल हो गया. मैंने अपना सामान अपने सीट के अन्दर अच्छी ढंग से डाल के अपने बैग से एक किताब निकाल कर आराम से बैठ गया. थोड़ी ही देर में ट्रेन नयी दिल्ली स्टेशन से निकल पड़ी और मैं भी अपने किताब के पन्नों में इस तरह व्यस्त हो गया कि मेरे आस-पास कौन आ कर बैठा है ये भी सुध मुझे नहीं रही. तभी थोड़ी देर बाद मेरे कानों में कुछ मीठी सी ध्वनि आई तो मैं नज़र घुमा के देखता हूँ कि मेरे बगल में एक लड़की बैठी हुई है और वो अपने मोबाइल फ़ोन पर किसी से बातें कर रही थी. दिखने में ख़ूबसूरत थी और किसी संभ्रांत परिवार कि लग रही थी और फैशन का मतलब उसे अच्छे ढंग से पता था ये उसके पहने हुए कपड़ों से प्रतीत हो रहा था. उसकी खूबसूरती और फैशनेबल कपड़ों का अंदाजा आप इससे ही लगा सकते हैं कि हमारे सीट के पास से गुजरने वाला हर व्यक्ति उसे अपनी भरपूर नज़रों से देख लेना चाहता था. एक चीज़ और मैंने गौर किया, कि कोई भी जब वहां से गुज़रता था तो उसकी गति हमारी सीट के पास आते ही धीमी हो जाती थी पर ऐसा लग रहा था वो लड़की इन सब चीजों से परवाह किये बिना लगातार फ़ोन पर बातें किये जा रही थी. उसकी उम्र ज्यादा से ज्यादा 19 साल कि होगी और उसकी बातों से मुझे लगा कि वो पटना कि ही रहने वाली है और दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी महाविद्यालय में पिछले साल ही दाखिला लिया है. मतलब करीब एक साल पहले दिल्ली आई है. उसकी बातचीत से मुझे पता चला कि वो अपने Ex Boy Friend से बात कर रही थी. जिससे उसका सम्बन्ध विच्छेद, अंग्रेजी में कहें तो break-up हो चूका था. दोनों के बीच ज़बरदस्त शीत युद्ध चल रहा था. लड़की भी उसे डांटने के अंदाज़ में उससे बात कर रही थी. बात जब ज्यादा बढ़ गयी तो उसने फ़ोन काट दिया और फिर दूसरा नंबर ड़ाल किया. ये उसके वर्तमान Boy Friend का था. फिर से बातों का सिलसिला शुरू हो गया. बातचीत के दौरान ही लड़की अपने Boy Friend को प्यार कि कसौटी पर मापना शुरू कर दिया और घंटों तक वो फ़ोन पर लगी रही. कभी नेटवर्क कट जाता कभी लाइन नहीं मिलती पर वो लगातार बातें करती जा रही थी.

सच बताऊँ तो मेरी आँखें फटी की फटी रह गयी थी उस लड़की की उम्र और उसके क्रिया-कलाप देख कर. उसकी उम्र १९ साल से ज्यादा नहीं होगी, एक साल पहले दिल्ली आई है और इस दौरान एक के बाद दूसरा Boy Friend. यह सब देख कर मुझे लगा की ये कैसी आधुनिकता की अंधी दौड़ है जिसमे हमारा युवा वर्ग भाग रहा है और हर किसी को अव्वल आने की तमना है. क्या यही भारत की सभ्यता संस्कृति है जिसे विदेशी आ कर अपनाना चाहते हैं, क्या यही युवा वर्ग हमारे देश का भविष्य हैं? देश पर आजादी के लिए कुर्बान होने वाले शहीद अगर ये सब देख रहे होंगे तो उनके मन में भी यही सवाल आ रहा होगा की "क्या यही है आजादी का मतलब?"

ये सिर्फ उस लड़की की बात नहीं है, आज का हर युवा इस अंधी दौड़ में भाग रहा है. अगर आपके पास Boy Friend या Girl Friend नहीं हैं तो आप पिछड़े हुए हैं, आपकी हसी उड़ाई जाएगी दोस्तों के बीच. क्या इसलिए हमें आजादी मिली थी? अगर युवा वर्ग ऐसा हो रहा है तो ये अत्यंत ही चिंताजनक बात है. क्यूंकि भविष्य में राष्ट्र निर्माण का जिम्मा इन्ही के हाथ में है. इसलिए मेरा अनुरोध है हिन्दुस्तान के युवावर्ग से की आप छणिक आत्मसंतुष्टि को छोड़ कर आत्मनिर्माण में अपना ध्यान लगायें. क्यूंकि हम आत्मनिर्माण के बाद ही राष्ट्रनिर्माण के बारे में सोच सकते हैं और अगर हम युवा वर्ग अपनी सोच बदलेंगे तभी अपना देश विकासशील से विकसित की कतार में आ पायेगा.

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

आम और ख़ास के बीच का फ़र्क

आज मुझे राहुल गाँधी के मुंबई दौरे के दौरान महाराष्ट्र सरकार द्वारा की गयी मुंबई की चाक चौबंद व्यवस्था को देख कर बहुत ख़ुशी हुई. ख़ुशी इस बात की नहीं हुई कि राहुल गाँधी कि सुरक्षा में सरकार सफल रही और उनकी यात्रा सफल हो गयी. बल्कि ख़ुशी इस बात कि हुई है कि जो शिव सेना और मनसे बेलगाम घोड़ों कि तरह मुंबई में आतंक मचाते रहते हैं, उनको काबू कर लिया. असल में कल शिव सेना का एलान था कि वो राहुल गाँधी को काला झंडा दिखा कर विरोद्ध प्रदर्शन करेंगे. लेकिन राहुल कल मुंबई के सड़कों पर इस तरह से फिरते रहे जैसे कोई खुल्ला शेर घूम रहा हो और किसी कि मजाल नहीं कि आस पास कोई फटक जाये. राहुल गाँधी तो मुंबई कि धड़कन कहलाने वाली लोकल ट्रेन में भी आम लोगों के बीच पहुँच गए. मैं किसी न्यूज़ चैनल पर देख भी रहा था कि किस तरह वो आम लोगों से बढ़-चढ के हाथ मिला रहे थे. ये अच्छा लगा कि हमारा नेता आम जनता कि बीच है. इसका पूरा श्रेय मैं वहां कि सरकार को देना चाहता हूँ. क्यूंकि उन्होंने दिखा दिया कि प्रशासन क्या चीज़ होती है, वो अगर चाह ले तो एक पत्ता भी न हिले.

पर फिर मेरे दिमाग में एक बात आयी कि, क्या गत वर्ष जब उत्तर भारतीओं पर जो हमले हो रहे थे उस वक़्त सरकार इसे रोकना नहीं चाह रही थी? उस वक़्त भी तो यहाँ कांग्रेस कि ही सरकार थी. राहुल गाँधी के मुबई दौरे के एक दिन पहले शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए करीब 300 से ऊपर शिव सैनिक गिरफ्तार किये गए. पर कोई मुझे ज़रा ये बता दे कि जब यही शिव सैनिक उत्तर भारतियों के ऊपर सड़क पर, ट्रेन में, परीक्षा केन्द्रों पर बेतहाशा हमले कर रहे थे उस वक़्त यही सरकार या इन्ही कि पुलिस 30 शिव सैनिकों को भी गिरफ्तार नहीं कर पाई थी और आज 300 से ऊपर गिरफ्तारियां हो गयी? हद तो तब हो गयी थी जब मैंने देखा कि मुंबई पुलिस को उस वक़्त जहाँ उत्तर भारतियों कि सुरक्षा में लगाना चाहिए था वहां ये उन्हें ट्रेनों में बिठा कर वापस भेजने के काम में लगा दिए गए थे. मतलब ये हुआ कि "गरीबी मत मिटाओ, गरीबों को मिटा दो." पर कल राहुल गाँधी के मुबई दौरे के दौरान सारी पुलिस फोर्स एक पैर पर नाच रही थी. यहाँ तक कि मुंबई पुलिस कमिशनर खुद इस तरह से भाग रहे थे जैसे कोई एक सिपाही हो और जब एक आम आदमी अपनी गुहार ले कर इनके पास जाता है तो इनसे मिलने में उसे महीनो लग जाते हैं. यहाँ तो यही निष्कर्ष निकलता है कि राहुल गाँधी इस सरकार के सर्वेसर्वा हैं तो उनके लिए सरकार सबकुछ कर सकती है और आम जनता जो ऐसे ही लोगों को ख़ास बना कर भेजती है, वो मरती रहे इसका दर्द कोई सुनने वाला नहीं है?

क्या इसका मतलब मैं यही समझूं कि "लोकतंत्र में सुरक्षा, सविंधान के अनुसार नहीं मिलती है बल्कि सुरक्षा हैसियत देख कर दी जाती है" शायद यही आधुनिक युग के लोकतंत्र कि परिभाषा है." अगर आज यही लोकतंत्र कि परिभाषा बन गयी है तो हमें आगे आना होगा. इस परिभाषा को बदल कर एक नए भारत का निर्माण करना होगा और आशा करता हूँ कि आप भी मेरे इस विचार से सहमत होंगे.

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

राजनीति का गिरता स्तर.......

आज पता नहीं क्यूँ मुझे मेरा बचपन याद आ रहा है. बचपन में मेरे पिता जी हमेशा मुझसे कहा करते थे कि "बेटा कुछ भी बोलने के पहले पांच बार सोच लिया करो, क्यूंकि एकबार बात आपके मुह से निकल जाती है तो फिर वापस नहीं आती और इस चीज़ का भी ध्यान रखना चाहिए कि मैं जो कुछ भी कहने जा रहा हूँ कही इससे किसी का दिल ना दुखे"

जहाँ तक मैं सोचता हूँ ये संस्कार और शिक्षा हर किसी को अपने घर और परिवार में किसी न किसी के द्वारा मिल ही जाती है. पर जब मैंने कल बाल ठाकरे का राहुल गाँधी के खिलाफ दिया गया कथन सुना तो मैं बड़ा आश्चर्यचकित रह गया. मेरे दिमाग में बस एक ही बात आ रही थी, कि क्या इनके परिवार में कोई ऐसा बुज़ुर्ग नहीं था जिनसे इन्हें अपर्युक्त संस्कार मिल सकता था जो हमें बचपन में मिला है. श्री बाला साहेब ठाकरे जी का कहना था कि " राहुल गाँधी का दिमागी संतुलन ख़राब हो गया है क्यूंकि उनकी शादी कि उम्र निकल चुकी है और लोगों की सही उम्र में शादी नहीं होती है तो ऐसी ही बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं" इस तरह का वक्तव्य इतने बुज़ुर्ग नेता के लिए शोभा नहीं देता. वैसे जब मैंने ठाकरे साहेब का ये वक्तव्य सुना तो मुझे लगा कि उन्हें उनकी बात ही याद दिलानी चाहिए कि छः साल तक केंद्र सरकार के मज़े चखने के लिए उन्होंने अटल जी का दामन पकड़ा था जो खुद ही अविवाहित हैं. तो क्या मैं इसका मतलब यह सोचूं कि अटल जी का दिमागी संतुलन बिगड़ गया था जिस कारण ठाकरे साहेब कि पार्टी को केंद्र सरकार में शामिल किया. जहाँ तक मुझे स्मरण होता है कि अपने गत वर्ष के महाराष्ट्र चुनाव में जिस नरेन्द्र मोदी को स्टार प्रचारक बना कर ले आये थे वो भी अविवाहित हैं और तो और बाल ठाकरे ने ऐसा कह कर देश के सर्वोच्च पद के ऊपर भी एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है क्यूंकि हमारी वर्तमान राष्ट्रपति महामहिम प्रतिभा पाटिल के पहले जो हमारे देश के राष्ट्रपति थे श्री अबुल कलाम, वो भी तो अविवाहित ही थे.

मुझे समझ नहीं आता है कि क्यूँ ये लोग अपनी ओछी राजनीति के चक्कर में देश कि गरिमा दाँव पर लगा देते हैं. शाहरुख़ खान ने अगर IPL में पाकिस्तानी क्रिकेटर के समर्थन में थोडा सा बोल दिया तो इतना बवाल मचा रहे हैं. लेकिन जब 2004 में पाकिस्तानी क्रिकेटर जावेद मियाँदाद, जो अब दाऊद इब्राहीम का समधी भी है, इनके घर "मातोश्री" में मेहमान नवाजी कर रहे थे तब इनकी सेखी कहाँ गयी थी. उस समय तो सारा ठाकरे कुनबा उनके साथ एक फोटो खिचवाने और मेजबानी करने में व्यस्त थे.

मैं यहाँ श्री राहुल गाँधी जी को दिल से धन्यवाद देना चाहता हूँ, क्यूंकि उन्होंने ठाकरे साहेब के इस असंयमित भाषा के जवाब में भी संयम नहीं खोया और बड़े ही अच्छे ढंग से उनका जवाब दे रहे हैं, जबकि ठाकरे साहेब ने न सिर्फ राहुल गाँधी पर व्यंग किया है बल्कि उनके परिवार पर भी व्यंग के बाण छोड़े हैं, उन्होंने तो सोनिया गाँधी को इटालियन मम्मी तक कह दिया. अब मुझे फिर से बचपन में सुनी हुई एक बात याद आ रही है कि " एक उम्र के बाद बच्चे और बूढों कि मानसिकता बिलकुल सामान हो जाती है, उनकी हर एक हरकत बच्चों जैसी हो जाती है" तो शाएद ठाकरे साहेब एक उम्र के पडाव को पार कर चुके हैं जहाँ से उनकी बच्चों वाली मानसिकता शुरू हो चुकी है. वैसे भी किसी सरकारी संस्थानों में ६० वर्ष के बाद व्यक्ति को अवकाश दे दिया जाता है, तो इनकी उम्र तो इससे बहुत ज्यादा भी हो चुकी है अतः इन्हें भी पूर्ण अवकाश पर चले जाना चाहिए.

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

उफ़ ये राजनीति

आज सुबह सुबह चाय की चुस्की के साथ अखबार की ताज़ी ख़बरों का मज़ा ले रहा था, की अचानक मेरी नज़र राहुल गाँधी के बयान पर पड़ी. बिहार भ्रमण के दौरान वो उत्तर भारतियों पर हो रहे हमले के बारे में बोल रहे थे की "मैं चुप नहीं बैठूँगा अगर उत्तर भारतियों(उ.प्र, बिहार) को हिन्दुस्तान के किसी भी हिस्से में काम करने या जीवन यापन करने से रोका गया तो"

जब मेरी नज़र इस समाचार पर पड़ी तो मुझे अंतर्मन से ख़ुशी हुई की चलो एक राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय नेता ने देश के इस दुर्भाग्य के बारे में सोचा तो. पर फिर मुझे लगा की गत दिनों कोई ऐसी बात या फिर कोई हमला तो हिंदी भाषियों पर हुआ नहीं है. फिर ये राहुल गांधी का उत्तर भारतीय प्रेम अचानक कैसे जग गया? जहाँ तक मुझे स्मरण है की गत वर्ष मुंबई में ही नहीं बल्कि पूरे महाराष्ट्र में उत्तर भारतियों पर हमले हो रहे थे उस वक़्त कहाँ थे हमारे ये राष्ट्रीय नेता. शायद उन दिनों महाराष्ट्र में चुनाव होना था और ये अगर उन हमलों के खिलाफ बोलते ये हमलावरों के खिलाफ कोई कारवाई करते तो इसका असर उनके मराठी वोट बैंक पर पड़ता. इसलिए बस मरने दिया उन्हें वहां और आज बिहार में चुनाव होने वाले हैं तो इनका उत्तर भारतीय प्रेम जग उठा है. क्यूंकि सवाल फिर से वोट बैंक का आ गया है. क्या ये राजनेता इस स्वार्थ से ऊपर उठ कर काम नहीं कर सकते?

जहाँ तक मेरी जानकारी कहती है की, ये मराठी के हित में मराठियों का झंडा बुलंद करने वाले और अपने आप को "मी मराठी" कहने वाले "ठाकरे & कंपनी" खुद मध्य प्रदेश से जा कर वहां बसे हैं. जब आप खुद अपने स्वार्थ के लिए वहां घुस गए तो दूसरों को रोकने का अधिकार आपको किसने दे दिया? कुछ दिनों पहले ठाकरे साहब की पार्टी ने आष्ट्रेलिया में भारतियों पर हो रहे हमले पर जबरदस्त विरोध जताया था. तो मुझे हँसी सी आ गयी उनके इस बयान को पढ़ कर और मैं सोचने पर मजबूर हो गया की " जो अपने देश में खुद इन चीजों को बढ़ावा दे रहा है वो दूसरों को नसीहत कैसे दे सकता है?"

मेरे विचार से महाराष्ट्र में जो भी हमले हो रहे हैं ये सब मीडिया का ध्यान आकृष्ट करने के लिए है. इन लोगों का मानना है की कुछ ऐसा करो जिससे समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ट पर इनकी तस्वीर छपती रहे. इन्हें भी कोई मतलब नहीं है मराठियों और मराठी भाषा से. अगर इनके अन्दर इतना ही मराठी भाषा का प्यार होता तो राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के बच्चे अंग्रेजी स्कूल में नहीं मराठी स्कूल में पढ़ रहे होते.

कभी-कभी मैं सोचता हूँ की अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो क्या एक दिन ऐसा आ जायेगा जब हमें अपने ही देश में एक प्रदेश से दुसरे प्रदेश जाने के लिए पासपोर्ट का प्रयोग करना पड़ेगा? मेरा नम्र निवेदन है हमारे राजनेताओं से की कृपया क्षेत्र, भाषा, प्रान्त, धर्म और जाति से ऊपर उठ कर अगर राजनीति करें तो हमारे देश का मान बना रहेगा. हमारे राजनेता अगर अवसरवादी राजनीति छोड़ कर देश की तरक्की पर अपना ध्यान देंगे तो शायद हमारा देश कहाँ से कहाँ पहुँच जायेगा.

कलयुग में भगवन शंकर

एक दिन सुबह की बात है. शायद नवरात्र का समय था, छुट्टी मनाने के मिजाज से मैं देर तक सोया हुआ था की अचानक मेरे कानोंमें कुछ कोतुहल सुनाई दिया जिससे मेरी नींद खुल गयी. मैं बाहर अपने दरवाजे पर आ कर देखता हूँ की स्वयं भगवन शंकर अपने अर्धनारीश्वर रूप में पधारे हुए हैं. मुझे अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था. मैं खुद को झकझोरते हुए जगाने की कोशिश कर रहा था की कही मैं स्वप्नलोक में तो नहीं हूँ. एक बार फिर आँख मलते हुए देखा तो पाया की ये अर्धनारीश्वर भगवान् शंकर नहीं उनके रूप में कोई और ही है जिसे कलयुगी भाषा में हिजड़ा या किन्नर कहते हैं. वो मुझे दिल से दुआएं दे रहा था. यह सब देख कर मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हो रहा था और मैं उसके पास जाने में हिचक रहा था. मैंने उसे दस रुपये के दो नोट दे कर चलता किया. वो मुझे वर्तमान और भविष्य के लिए ढेरों दुआएं देता हुआ चला गया. पर उसके जाने के बाद मैं ये सोचने लगा की इसी इंसान को जब मैंने अपनी आधे जगे और आधे सोये हुए अवस्था में भगवान् शंकर का अर्धनारीश्वर रूप समझ रहा था तो मेरे मन में इसके प्रति कितनी श्रद्धा जगी थी. शायद अगर सचमुच भगवान् शंकर इस रूप में उपस्थित हो जाते तो मेरे से ज्यादा भाग्यवान इस धरती पर कोई नहीं होता, पर जैसे ही मुझे लगा की ये हिजड़ा है तो अजीब सा घृणा का भाव मेरे मन में आ गया, क्या ये सही था?
कभी कभी मैं सोचता हूँ की लोग पुरुषों की तुलना भगवान् राम और विष्णु से करते हैं और स्त्रियों की तुलना माँ सीता और लक्ष्मी से. मैंने कई लोगों को कहते भी सुना है की "देखो दोनों की क्या जोड़ी है, लगता है जैसे राम और सीता हैं" पर आज तक किसी हिजड़े तुलना भगवन शंकर के अर्धनारीश्वर रूप से नहीं किया है. आज हमारे बिच ये सिर्फ मजाक का पात्र हैं. ज़रा सोचिये हर खुशियों में ये हमारे यहाँ आ कर लाखों दुआएं दे कर चले जाते हैं, हमारी हर ख़ुशी में शरीक होते हैं पर हमारा समाज इनके साथ कैसा बर्ताव करता है. क्या कभी हमने सोचा है की इन्हें भी उसी भगवान् ने बनाया है जिसने हमें बनाया है. तो हम कौन होते हैं इनका मजाक उड़ाने वाले? आगे से आप भी ध्यान रखना की अगर आप इनका मजाक उड़ा रहे हैं तो इसका मतलब है की आप भगवान् शंकर के अर्धनारीश्वर के रूप पर हस रहे हैं.

सहनशीलता

सह लिया था वह दुर्दिन हमने
जब छिना था तूने ताशकंद में भारत के लाल को
विस्मित हो गया हूँ यह जान कर
करके विस्फोट कर दिया अशांत भारत के भाल को

जान कर आज तक अनजान रहा
यह सोच कर की मिट न जाये देश से मानवता
कहलाते हो पाक पर तेरे इरादे कितने हैं नापाक
मिट ना पाई अबतक तेरे मन की दानवता

खंड खंड करके कश्मीर तो जलाया तूने
जला तो दिया था पंजाब भी
महाराष्ट्र में भी दिखाई अपने लपट तूने
देखो भष्म करना चाहा बंगाल भी

ऐ हिन्द वासियो आगे बढ़ो अपनी हूंकार से
बाधा लो भूगोल अपने हिन्दुस्तान का
बेशर्म आतंक का जो बन चूका है आज पर्याय
मिटा दो नाम उस कलंकी पकिस्तान का