बुधवार, 24 जनवरी 2018

आज की पद्मावती का हाल





पद्मावत , मैंने तय किया था कि इस विषय पर मैं न तो कुछ बोलूंगा और न कुछ लिखूंगा. क्यूंकि एक तो मैंने फिल्म देखी नहीं है और न ही मुझे इसका इतिहास पता है. लेकिन कल की गुरुग्राम की घटना ने मुझे मजबूर कर दिया. इस फिल्म के लिए चारों तरफ विरोध चल रहा था प्रदर्शन हो रहे थे. खैर विरोध प्रदर्शन तो हर किसी का संवैधानिक अधिकार है. लेकिन कल जो गुरुग्राम में हुआ ये कौन सा तरीका था विरोध प्रदर्शन का....? स्कूल बस में मासूम बच्चे बैठे थे. जिन्हे शायद 'पद्मावती और करणी सेना' का नाम भी नहीं पता होगा, लेकिन इसके नाम पर जो उन्होंने भय और आतंक भरे क्षण गुज़ारे हैं उनका कौन ज़िम्मेदार है? ज़रा दो मिनट सोच के देखिये, हँसते खेलते हुए ये बच्चे स्कूल से छुट्टी होने की ख़ुशी में घर की ओर जा रहे हैं और अचानक पत्थरों की बारिश शुरू हो जाती है और बस के शीशे टूटने लगते हैं. वो बच्चे जिनके चेहरों पर घर पहुंचने की ख़ुशी थी, अब घर पहुँच भी पाएंगे की नहीं ये डर हो गया. अचानक बस के अंदर रोने-चीखने की आवाज़ शुरू हो जाती है. लेकिन प्रदर्शनकारी को ज़रा भी दया नहीं आती है और वो लगातार पत्थरबाजी कर रहा है. अब यहाँ आप ये भी सोच के देखिये कि उसी बस में आपका बच्चा भी बैठा हुआ है. 

इस लिंक में आप देख सकते हैं की बच्चों की कैसी हालत थी उस वक़्त 

                                         आज पद्मावत इतना बड़ा मुद्दा बन गया है कि कई प्रदेश की सरकारें इसके विरोध
में आ गयी हैं. यहाँ तक की सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार इसके प्रदर्शन पर कोई रोक नहीं लग सकती. फिर भी प्रदेश की सरकार इस पर कानूनी राय लेने की बात कर रहे हैं कि इस पर कैसे रोक लगे. जिस पद्मावती के अपमान के कारण ये सारा प्रदर्शन चल रहा है, पता नहीं कितने संगठनों ने इसे समाज की इज़्ज़त का मुद्दा बना लिया है. लेकिन सब ये भूल गए कि जिस गुरुग्राम में प्रदर्शन के नाम पर बच्चों को डराया गया, उसी प्रदेश में पिछले 10 दिन में 10 पद्मावती के साथ बलात आचरण किया गया और उसमे कुछ नन्ही पद्मावती भी थी. अब पूछता हूँ कहाँ हैं वो समाज के ठेकदार, जिनकी इज़्ज़त पद्मावत के रिलीज़ होने से जा रही है, अगर इतनी ही इतिहास की चिंता थी तो पिछले 10 दिनों में इसके लिए क्यों नहीं विरोध प्रदर्शन हुए. क्या ये सब जो समाज में चल रहा है उससे उनके समाज की इज़्ज़त नहीं जा रही. क्या यही हमारा इतिहास रहा है. सेना चलाने वाले पद्मावत के निर्देशक, कलाकार के सर-नाक काटने  पर लाखों इनाम की घोषणा कर रहे हैं. अगर वो खुद को समाज का सच्चा संगरक्षक मानते हैं तो कभी उन्होंने समाज के इन अपराधियों के लिए ऐसी घोषणा क्यों नहीं की.
                      
                           ये सारा नाटक सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए चल रही है. साथ ही सरकारें इन जैसे लोगों को भरपूर समर्थन भी कर रही है. सामान्यतः एक आम आदमी अगर सर काटने की बात भी कर ले तो अगले घंटे वो खुद को जेल के अंदर पाएगा, लेकिन ये जनाब कई जगहों पर पार्टी विशेष का चुनाव प्रचार करते नज़र आते हैं वो भी भारी भरकम सुरक्षा व्यवस्था के साथ. इसलिए फिल्मों को छोड़ अगर समाज कि आज की  पद्मावती की  रक्षा के लिए ठोस कदम उठायें तो वो ज्यादा बेहतर होगा.

बुधवार, 13 दिसंबर 2017

कैसी ये चीत्कार है...

गोरखपुर हादसा 

कैसी चीत्कार है, ये कैसा हाहाकार है
मृत हुए मासूम, निष्ठुर ये सरकार है.
मां की ये गोद है, गोद मे अबोध है
मृत पड़ा है ये, माँ को नही ये बोध है.
लाशों का व्यापार है, कौन गुनाहगार है 
कैसी चीत्कार है, ये कैसा हाहाकार है.

गोद ये पिता की आज अर्थी बन गयी
माँ के कलेजे को ये टुकड़े टुकड़े कर गयी.
सीले हुए ये लब हैं, हाथों में शव है
पंक्तियों में सब है, संस्कार कब है.
मृत हुए मासूम, निष्क्रिय सरकार है
कैसी चीत्कार है ये कैसा हाहाकार है.


सोमवार, 26 जून 2017

खो गया मेरा वो हिंदुस्तान


कहाँ खो गया मेरा वो हिन्दुस्तान
संग थे जहां ॐ और अज़ान
धर्म  से बड़ा था जहां ईमान
कहाँ खो गया मेरा वो हिन्दुस्तान...

दिवाली, ईद दोनो थी हमारी शान
जहां संग रहते थे राम और रहमान
जब सिर्फ भाईचारा थी हमारी शान
कहाँ खो गया मेरा वो हिन्दुस्तान...

माँस की लड़ाई में बंटे हिन्दू मुसलमान
न जाने दिल में क्या पल रहे अरमान
इन्सानों को बंटते देख रो रहा आसमान
कहाँ खो गया मेरा वो हिन्दुस्तान...

चाँद से भी न कुछ सीख सका ये इंसान
शीतल ही है, करवाचौथ हो या रमज़ान
खो के इंसानियत ये बने हिन्दू मुसलमान
कहाँ खो गया मेरा वो हिन्दुस्तान...

शनिवार, 17 जनवरी 2015

किरन बेदी: अन्ना आन्दोलन से मोदीत्व तक...


दिल्ली चुनाव करीब है और इस वक़्त मुझे अन्ना हजारे का वो पुराना कुनबा याद आ रहा है. मंच के एक तरफ कुमार विश्वास हाथ में माइक ले कर गाते हुए "होठों पे गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो" और मंच के दूसरी तरफ किरन बेदी हाथों में तिरंगा ले कर लहराती हुई.
मंच पर अन्ना हजारे साथ ही एक आरटीआई एक्टिविस्ट अरविन्द केजरीवाल बीच-बीच में आ कर जनसमूह का अभिवादन स्वीकार करते थे. आज भी इस कुनबे की पूरी तस्वीर आँखों के सामने यदा कदा आ ही जाती है, जिसमे ये सभी सरकार और भारत के प्रमुख दोनों पार्टियों के खिलाफ नारा बुलन्द करते थे.

लेकिन आज की तस्वीर बिलकुल बदली हुई सी मुझे नज़र आयी. जिस गोधरा पर किरन बेदी ने सैकड़ों सवाल उठाये थे आज वो उसी अमित साह के बगल वाली कुर्सी पर बैठ कर मुस्कुराते हुए बार-बार नरेन्द्र मोदी के तारीफ के पुल बाँध रही थीं. हाय रे राजनीति, इस राजनीति ने तो देश के एक तेज़-तरार्र, बेदाग़ महिला पर भी अपनी छाप छोड़ दी. तभी बड़े-बूढ़े कहते हैं कि "बेटा राजनीति बड़ी गन्दी चीज़ है, लोग इसमें अपना ईमान तक बेच खाते हैं."




अब देखिए अन्ना आन्दोलन के बाद कहानी थोड़ी फ़िल्मी होती चली गयी. केंद्र में बीजेपी ने सरकार बना ली है. रालेगण सिद्धि में अकेले बैठे हुए अन्ना और उनके सहयोगियों की आखिरी किस्त भी उनसे विदा ले चुकी है. आंदोलन से जुड़ी एक पूर्व महिला पत्रकार अपने पुराने सहयोगियों को 'एक्सपोज' करने पर आमादा हैं. 'देशसेवा' के जज्बे से लैस देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी भाजपा में शामिल हो गई है और भाजपा ने इन्हें राजधानी में होने वाले चुनाव का अघोषित रूप से सबसे बड़ा चेहरा बना चुकी है. साथ ही एक बड़ी बात कि अन्ना का आंदोलन अब दुर्गति को प्राप्त हो चूका है. मतलब साफ़ है, चार साल में कई सपनों के चार टुकड़े हो गए हैं. हालांकि अरविंद अपनी गलतियों, खामियों और पुराने साथियों के साथ अपने जीवन की संभवत: सबसे अहम लड़ाई लड़ रहा है.

लेकिन किरन बेदी ने उस अन्ना आन्दोलन के दौरान भाजपा के ऊपर कई सवाल उठाये थे, क्या मैं ये मानूं कि किरन बेदी को उनके सभी सवालों के सही जवाब मिल चुके हैं या फिर मैं ये मान लूं कि जब भी किसी फैक्ट्री में हड़ताल होती है तो हड़ताल के नायक, यानि यूनियन लीडर को फैक्ट्री का मालिक बुला कर उसे वहां का मेनेजर बना कर मामला समाप्त कर देता है. शायद यहाँ भी ये मामला इसी तरीके से समाप्त करने की कोशिश तो नहीं की गयी?  

यहाँ समस्या ये नहीं है कि किरन बेदी भाजपा में शामिल हो गयी, दरअसल समस्या ये है कि कांग्रेस-भाजपा से लड़ते लड़ते ये भाजपा में शामिल हो गयीं. जिस भाजपा पर अपने ट्वीट के बौछारों से कई सवाल खड़े करती थीं, जैसे राजनीतिक पार्टी को आरटीआई में लाने का सवाल, गुजरात दंगे पर नरेन्द्र मोदी की भूमिका, लोकपाल-जोकपाल, गढ़करी कॉर्पोरेट कनेकशन. क्या अब आप अपने उसी सवाल से असहमत हैं? मैं इन्हें बस याद दिलाना चाहता हूँ कि ये खुद इन नेताओं को रंग बदलने वाले सियार कि संज्ञा दिया करती थीं, लेकिन अब ये खुद के लिए कौन से शब्द या विशेषण ढूंढ के रखीं हैं, ज़रा हमें भी बताएं.

जब अरविन्द ने आम आदमी पार्टी बनायी थी तो किरन बेदी ने अपने आप को बिलकुल गैर-राजनीतिक बताते हुए किसी पार्टी में जाने की संभावनाओं को भी खारिज़ किया था. फिर ये अचानक इन्हें क्या हो गया, कहीं मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली देख कर अपने सिद्धांतों से पलट तो नहीं गयीं? अन्ना आन्दोलन इसी राजनीतिक
व्यवस्था के खिलाफ एक आवाज थी जिस व्यवस्था में आज आपने अपना विलय किया है. अगर यही करना था तो कांग्रेस भी बुरी नहीं थीं लेकिन वहां जाने में तो रिस्क था. क्यूंकि एक तो उसने आपको दिल्ली का पुलिस कमिश्नर नहीं बनने दिया और दूसरा भाजपा लगातार जीत रही एक स्थापित पार्टी है. यहाँ मेहनत कम करनी पड़ेगी, अब इस अवस्था में आपको अवसरवादी ना कहूँ तो क्या कहूँ?

किरन बेदी को अगर मुख्यमंत्री ही बनना था तो 2013 में आम आदमी पार्टी का मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनने का प्रस्ताव क्यों नहीं स्वीकार किया कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्हें आम आदमी पार्टी की सरकार बनने का कोई अंदेशा ही न रहा हो? एक स्थापित राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ नई पार्टी बनाकर चुनाव लड़ना एक तरह का संघर्ष है, इसमें बहुत कुछ दांव पर लगाना पड़ता है. लेकिन यहाँ बिलकुल साफ़ है कि अन्ना हजारे की पीठ में छुरा किसने घोंपा? अन्ना आन्दोलन के दौरान एक स्वामी अग्निवेश कांग्रेस से मिल गए थे तो दूसरी ओर आप अग्निवेश की तरह भाजपा से मिल गयीं. वैसे मैडम जी, आपको रामविलास पासवान जैसे सहयोगी और येदुरप्पा जैसे साथी की नई संगत मुबारक हो.

शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013

असली रावण कौन...?


पता नहीं क्यूँ कभी कभी ऐसा लगता है जैसे हमारी परम्पराएँ समय के साथ बदल जानी चहिये। सुनकर या फिर सोचकर कुछ लोग सहमत नहीं होंगे पर मेरे विचार में यही सच है। ये विचार मेरे मन में कुछ दिनों पहले बीते विजयादशमी के दिन आया, जब हर चौक, चौराहों, गली मुहल्लों और मैदानों में बुराई के प्रतीक रावण दहन का कार्यक्रम चल रहा था। दशहरा के दिन रावण के विशाल पुतले में आग लगा कर अधर्म पर धर्म के विजय का प्रतीकोत्सव मनाया जाता है। पर आज के समय में रावण कहाँ नहीं है और सड़कों पर चलते फिरते रावण के कुकृत्य से कौन अनजान है? आज भी अनेक सीताओ के अपहरण होते हैं, पर ऐसा कौन सा रावण है जो सीता को उसके हामी के इंतज़ार में उसे अशोकवाटिका में छोड़ता है? ये बात बिलकुल सत्य है कि सीता आज भी असहाय ही है पर शायद अब उनकी आँखों में अपनी सुरक्षा हेतु किसी राम की प्रतीक्षा नहीं होती है, बल्कि उनकी आँखों में असल रावण के न होने का मलाल ज़रूर होता है जो अशोकवाटिका के बदले सीधा बलात आचरण पर ही उतर जाता है। ज़रा सोचिये, हम जिस रावण का पुतला दहन करते हैं, उसी रावण के कैद से मुक्त होकर सीता श्रीराम की अग्निपरीक्षा में उतीर्ण हुई थी। अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि बड़ा रावण कौन है, आज का रावण या फिर कल का रावण जिसका हम हर साल दहन करते हैं।

उस समय तो हम एक ही झलक से रावण को पहचान लेते थे, क्यूंकि वो दस सिर लेकर घूमता था। पर आज का रावण जिसे पहचान पाना बहुत मुश्किल है और उसके दस सिर भी नहीं होते। अभी सबसे बड़ा उदहारण साधू के रूप में घुमने वाला आसाराम है। कम से कम रावण के बारे में हर कोई जानता था कि वो दुराचारी राक्षस है। पर ऐसे रावण जो साधू का भेष धर के रावण से भी आगे निकल चुके हैं तो ऐसे में सीता कहाँ सुरक्षित रह सकती है। वो रावण तो साधू का भेष धर के सीता का अपहरण किया पर सीता को अशोकवाटिका में रखा क्यूँकि उनके पति वनवास काट रहे थे और रावण नहीं चाहता था कि सीता के पतिव्रता धर्म पर कोई आंच आये। वो चाहता तो ज़बरदस्ती सीता को महल में रख सकता था पर ऐसा कभी नहीं किया। पर आजकल के इस साधूरूप में छुपे रावण को देखकर तो ऐसा लगता है कि अगर साक्षात् श्रीराम भी धरती होते तो इन्हें देखकर वो खुद भी शर्मसार हो जाते। अब तो ऐसा लगता है जैसे वक़्त आ गया है कि हम जागरूक हो जाएँ और इस साधुरूपी रावण को महिमामंडित करने के बजाये दण्डित करने की शुरुआत करें। तभी हमारे समाज और देश का भला होना संभव है।

मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

धन्यवाद तेरा जो कोख में तू मुझको लाई माँ

मैंने यहाँ कुछ कोशिश की है कि अपने देश में जो आजकल हो रहा है, खासकर बच्चियों के साथ जो यौन उत्पीड़न के मामले सामने आ रहे हैं. अगर एक माँ जिसके कोख में एक बच्ची पल रही हो तो वो बच्ची यहाँ के हालात पर क्या सोचती है...?



धन्यवाद तेरा जो कोख में तू मुझको लाई माँ
पर क्या करूँ आ कर जहाँ सिर्फ हो बुराई माँ
जहाँ हर रिश्ता जैसे ख़त्म हो रहा हो बनकर धुआं
क्या करुँगी आकर तेरे इस बुरे घर बार में माँ

जहाँ पिता और भाई भी करे इज्ज़त को तार तार
किसकी बाहों में खेलूंगी, कैसा चल रहा ये कारोबार
मानती हूँ तेरी रौशनी बन के यहाँ मैं आई माँ
धन्यवाद तेरा जो कोख में तू मुझको लाई माँ

माँ कुछ ऐसा कर दे कि बेटी कोख में ही ना आ पाए
कम से कम हर रिश्ता दागदार होने से तो बच जाये
ना कर मुझसे मुझे जन्म देने कि अब लड़ाई माँ
धन्यवाद तेरा जो कोख में तू मुझको लाई माँ

सोच कर थम जाती हैं साँसे, सहम जाता है ये दिल
किस रिश्ते पर करूँ भरोसा, कोई नहीं इस काबिल
मुझे वापस वही भेज दे जहाँ से मुझको तू लाई माँ
धन्यवाद तेरा जो कोख में तू मुझको लाई माँ

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

क्या ठाकरे की बपौती है मुंबई...?

पिछले दो-तीन दिनों से अखबारों और न्यूज़ चैनल पर बाल ठाकरे एण्ड कंपनी को बिहारियों के खिलाफ ज़हर उगलते हुए देख रहा हूँ. कल तो हद ही हो गयी, एक सिनेमा हॉल में भोजपुरी फिल्म चल रही थी और वहाँ राज ठाकरे के गुंडों ने हमला बोल दिया, जो पकड़ में आया उसे बुरी तरह पीट दिया. यह सब देख कर पता नहीं क्यूँ मुझे आज राहुल गाँधी याद आ गए और साथ ही उनका फ़रवरी 2010 का बिहार दौरा याद आ रहा है. जी हाँ, मुझे उसी राहुल गाँधी की याद आई है जो बिहार चुनाव के ठीक पहले पटना आये थे और सिंह गर्ज़ना करते हुए कहा था कि “बिहारियों को महाराष्ट्र जाने से कोई नहीं रोक सकता. अगर कोई इसकी हिम्मत भी करता है तो उसे करारा जवाब दिया जाएगा.” पर कहाँ गया वो कुरते की आस्तीन चढा कर शानदार भाषण देने वाला व्यक्ति जब फिर से बिहारियों पर हमले हुए. आज मराठियों के खिलाफ रोष प्रकट करने वाला राहुल गाँधी ठीक उसी तरह गायब है जैसे गधे के सर से सींग गायब होता है, आखिर ये कैसी लुका छिपी है? मुझे याद आता है जब राहुल से नाराज़ हो कर शिव सेना ने राहुल गाँधी के मुंबई घुसने पर पाबंदी लगा दी थी. पर राहुल गाँधी मुंबई आये लेकिन उसके पीछे जो पुलिस व्यवस्था की गयी थी वो देखने लायक थी. जी हाँ लग रहा था जैसे परिंदा भी पर नहीं मार सकता. राहुल गांधी के मुंबई पहुचने के ठीक पहले करीब 300 से ज्यादा शिव सैनिक गिरफ्तार किये गए थे. जबकि मुझे याद नहीं है कि जब भी बिहारियों या उत्तर भारतियों पर हमले हुए हैं उस वक्त 30 शिव सैनिक भी गिरफ्तार हुए हों. हाँ पुलिस वालों की ड्यूटी मुंबई के हर स्टेशनों पर ज़रूर लगा दी जाती है जो बिहारियों को ज़बरदस्ती ट्रेन में बिठा कर वापस भेजने का काम करती है. यहाँ सरकार का मतलब साफ़ है कि वो भी दबे जुबां से इन दंगाइयों की मदद कर रही है. अभी तक जितने भी हमले बिहारियों पर हुए हैं उनमे कभी भी मैंने किसी कांग्रेस के नेता को आगे आ कर बोलते हुए नहीं सुना है. जबकि महाराष्ट्र में इन्ही की सरकार है अगर चाहें तो ऐसे गुंडों को सबक सिखाने में इन्हें ज़रा भी वक्त नहीं लगेगा पर नहीं बोलेंगे क्यूंकि यहाँ चुनाव नजदीक है. वैसे कई प्रदेशों का भगोड़ा ठाकरे कुनबा जिसके मराठी होने का सबूत अभी तक किसी इतिहासकार को मिला ही नहीं है. कोई कहता है ये बिहार से आया है, कोई यू.पी. कहता है तो कोई एम.पी. अलग अलग अध्ययन से यही पता चला है कि महाराष्ट्र के पहले इनका अंतिम आश्रय स्थल मध्य प्रदेश का देवास जिला था और वहाँ से रोजगार की खोज में महाराष्ट्र आये थे. साथ ही यहाँ मैं एक और बात बताना चाहूँगा कि “ठाकरे” इनका टाइटल है ही नहीं. बाल ठाकरे के दादा उस वक्त के एक ब्रिटिश लेखक विलियम मेकपिस ठाकरे से बहुत प्रभावित थे और उसी का अंतिम नाम अपने बेटे केशव सीताराम ठाकरे उर्फ प्रबोंधंकर ठाकरे को दिया. मतलब साफ़ है कि ठाकरे कुनबा का यह नाम भी एक दो पीढ़ी ही पुराना है. अब यहाँ सवाल ये उठता है कि क्या बाल ठाकरे के दादा सीताराम सच में उस ब्रिटिश लेखक से प्रभावित हो कर अपने बेटे को एक नया टाइटल दिए या फिर पुरानी यादों को मिटा कर बच्चों की नयी जिंदगी, एक नए तरीके से, एक नए प्रदेश में शुरू करवाना चाह रहे थे जिसका फायदा आज ठाकरे कुनबा उठा रहा है. मराठी प्रेम तो इस तरह इनके अंदर भरा हुआ है कि हर चीज़ ये मराठी में ही करवाने की बात करते हैं. शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव् ठाकरे हमेशा मराठी बोलने और मराठी स्कूलों में पढ़ने पर जोर देता है पर इससे उसे खुद को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका बेटा कहाँ पढ़ रहा है. जी हाँ, आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि उद्धव ठाकरे का बेटा आदित्य ठाकरे जो अभी युवा शिवसेना के अध्यक्ष हैं वो मुंबई के महंगे और बड़े स्कूलों में से एक स्कूल में पढते थे. ये स्कूल था “बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल” जहाँ सभी बड़ी बड़ी बॉलीवुड की हस्तियाँ पढ़ा करती थीं और आज वहाँ उनके बच्चे पढ़ रहे हैं. अब आप ही देखिए ये है मराठी भाषा का नारा बुलंद करने वाला नेता. मेरा मानना है कि अगर आप मराठी स्कूलों की इतनी वकालत करते हो तो अपने बच्चों को वहाँ क्यूँ नहीं भेजते? भारत की आर्थिक राजधानी कही जाती है मुंबई. इसका मतलब साफ़ है कि यह मुंबई सभी भारतीयों का उतना ही है जितना मराठियों का. मुंबई इस ठाकरे की कोई बपौती नहीं है जो कि जब चाहे बिहारियों के खिलाफ फतवा ज़ारी कर दे. पूरे देश में मुंबई का नाम फिल्म उद्योग के कारण ही है और इस ठाकरे को मैं ये भी याद दिला दूं कि इस उद्योग में उत्तर भारतियों का ही सिक्का चलता है. यहाँ मैं सभी तो नहीं कहूँगा पर हाँ अधिकतम बड़े निर्माता निर्देशक उत्तर भारतीय ही हैं. अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो मुंबई में सिर्फ भोजपुरी फिल्म का व्यवसाय २०० से ३०० करोड का है. अब आप ज़रा सोचिये कि ये सिर्फ मुंबई में भोजपुरी फिल्म के व्यवसाय का आंकड़ा है और ये बिहारियों के खिलाफ ज़हर उगलते हैं. ये तो वही बात हो गयी कि “जिस थाली में खाया उसी में छेद कर दिया.” मतलब साफ़ है कि यहाँ आ कर हम आपको रोटी दे रहे हैं और आप हमें ही आँखें दिखा रहे हो. कोई बात नहीं कहा ही जाता है कि “अपने इलाके में कुत्ता भी शेर बनता है” जितना भौकना हो भौंक लो क्यूंकि हाथी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. पर बस डर एक ही बात का है कि जिस तरह से गुंडागर्दी ये वहाँ मचा रहे हैं कही फिर कोई राहुल राज ना पैदा हो जाए.