बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार का नाम जनता ने आज बदल कर सुशासन कुमार रख दिया है. क्यूंकि चारो ओर खुशहाली और हरियाली दिख रही है. पर आज मैंने इसी सुशासन कुमार के राज्य का एक तालिबानी विडियो क्लिप किसी न्यूज़ चैनल पर देखा, जिसने मेरे रौंगटे खड़े कर दिए. इस क्लिप को देखने बाद से मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मैं मुख्यमंत्री का नामकरण सुशासन कुमार करूं या फिर कुशासन कुमार? इस क्लिप में हाल ही में अररिया, फारवीसगंज में हुए गोलीकांड के बाद का जिक्र है. जिसमे एक पुलिसवाला 16-17 साल के बेहोश पड़े हुए बच्चे के चेहरे पर घुटने के बल कूद जाता है. फिर अपने बूट से उसके सर पर निर्मम वार करता है. अब इससे भी मन नहीं भरा तो अपने साथी से डंडा मांगने लगता है, जिसे उसके साथी ने मना कर दिया. सच में अगर आपने वो विडियो क्लिप देख लिया तो आपका खून खुल उठेगा इस सरकार के खिलाफ. http://aajtak.intoday.in/videoplay.php/videos/view/57589/2/206/what-should-be-name-of-this-barbaric-act.html
जी हाँ यहाँ मैंने वेब एड्रेस डाला है इस URL को आप कॉपी पेस्ट करके वो विडियो क्लिप देख सकते हैं.
जब मैंने ये देखा तो इस खबर को विस्तार से जानने के लिए मैंने जांच-पड़ताल शुरू कर दी, तो पता चला कि ये ज़मीन अधिग्रहण का मामला है. सरकार ने ओरो सुंदरम इंटरनेशनल प्रा. लि. को एक फैक्ट्री लगाने के लिए ज़मीन बेचीं थी. पर जो ज़मीन फैक्ट्री को दी गयी वो गांव आने जाने का एकमात्र सार्वजनिक रास्ता है जिस पर कई सरकारी निधियों द्वारा सड़क निर्माण के नाम पर पैसा लगाया जा चूका है. जिससे गांववाले उसी रास्ते से गांव कि अन्दर बाहर जाते थे और इसी का विरोध गांव वालों ने किया. पर सुशासन सरकार ने गाँव वालों के विरोध के खिलाफ जो पुलिसिया कारवाई की वो बेहद शर्मनाक थी. सरकार ने तो इंदिरा सरकार के आपातकाल दौर को भी पीछे छोड़ दिया, जिसका एक अंश आप उस विडियो क्लिप में भी देख सकते हैं. वहां पुलिस द्वारा ज़बरदस्त गोलीबारी की गयी जिसमे सरकारी आंकड़ों के हिसाब से चार लोगों की मौत हो गयी. अब सवाल ये उठता है कि गलत ज़मीन क्यूँ सरकार द्वारा बेचीं गयी और जब गाँव वालों ने विरोध किया तो ये तालिबान की तरह पुलिसिया कारवाई क्यूँ कि गयी? कहीं इसमें सरकार या फिर सरकार में शामिल किसी का स्वार्थ तो नहीं छिपा हुआ था? जी हाँ, ओरो सुंदरम इंटरनेशनल प्रा. लि. के निदेशक अशोक चौधरी हैं और इसमें भाजपा के विधान पार्षद अशोक अग्रवाल के पुत्र सौरभ अग्रवाल भी साझेदार हैं. तो अब सवाल ये उठता है कि कही ये कारवाई सरकार इशारे पर तो नहीं हुई?
खैर इसमें साझेदार जो भी है पर सबसे बड़ा सवाल ये है कि नंदीग्राम के बराबर का ये कांड था पर बिहार कि मीडिया में इस खबर को कितनी प्रमुखता से छापा गया? बिहार के तीन-चार प्रमुख और चर्चित अखबार हैं, जिसमे फारविसगंज की खबर को प्रमुखता से नहीं बस एक सूचना के तौर पर जगह मिली. चाहे वो, दैनिक हिन्दुस्तान हो, चाहे दैनिक जागरण या फिर प्रभात खबर. अगर घटना के दुसरे दिन रविवार 5 जून का अखबार आप देखंगे तो पाएंगे कि बड़े अखबारों हिन्दुस्तान और दैनिक जागरण के पटना संस्करण के पहले पन्ने पर फारबिसगंज पुलिस गोलीबारी से संबंधित कोई खबर ही नहीं थी. इतना ही नहीं शनिवार को उपरोक्त अखबारों में इस गोलीकांड के विरोध में भाकपा (माले) द्वारा निकाले गये प्रतिवाद मार्च की खबर या तो अंदर के पन्नों पर किसी कोने में इस तरह छापी गयी कि मुश्किल से उस पर नजर पड़ती. या फिर इस मार्च को हिंदी अखबारों ने कोई जगह ही नहीं दी. दरअसल बड़े हिंदी अखबारों ने यह दिखाने की पूरी कोशिश की, कि इस बर्बर घटना के बावजूद राजधानी पटना में सब शांति-शांति है. लेकिन लोकतंत्र का ये चौथा स्तम्भ बिहार में इतना पंगु क्यों है, शायद इन्हें लगता है कि अगर जनता को इस बर्बरता के बारे में बताने से बिहार के मीडिया को नियंत्रित करने वाला मुख्यमंत्री सचिवालय नाराज हो जायेगा और वहां से बहने वाले विज्ञापनों के श्रोत सूखने लगेंगे. लेकिन ऐसी सोच इनकी हो गयी है तो लोकतंत्र का स्तम्भ कहलाने का क्या हक है इन्हें?
अगर हम नीतीश सरकार के पिछले छह साल के कार्यकाल पर नज़र डालें तो यह निष्कर्ष निकलता है कि बड़े अखबारों के निष्पक्ष नहीं रहने का यह कोई पहला मामला नहीं है और अंतिम तो बिल्कुल नहीं. फारबिसगंज गोलीबारी की घटना का इन अखबारों ने जिस तरह से कवरेज किया वो इसका एक नया उदाहरण मात्र है. जंगलराज की समाप्ति के बाद आज भी बिहार में पुलिस अत्याचार, भ्रष्टाचार, हत्या, अपहरण, फिरौती, बलात्कार जैसी घटनाएं बड़े पैमाने पर घट रही हैं. पर राजद सरकार में ऐसी ख़बरें प्रमुखता से पहले पन्ने पर आती थी जिसे अब धकेल कर अंदर के पन्नों में भेज दिया गया है या फिर ये खबर बनती ही नहीं है. क्यूंकि इससे इनके सुशासनी दावों कि पोल खुल जाएगी और अगर अखबार सरकार की पोल खोलना शुरू कर देंगे तो मुख्मंत्री सरकारी विज्ञापन देना बंद कर देंगे. अब सीधा दोष हम सरकार का भी नहीं दे सकते क्यूंकि व्यासायिक दृष्टिकोण यही कहता है कि अखबार चलाने के लिए पैसा चाहिए, अगर सरकार का तलवा चाटने से ही ये कमी पूरी होती है तो यही सही. जी हाँ, अगर आप अखबार देखें तो पाएंगे कि सरकारी विज्ञापनों से हर पन्ना पटा रहता है और सुशासन बाबू का स्पष्ट निर्देश है कि जो भी अखबार उनके खिलाफ खबर छापे उनका विज्ञापन बंद कर दो. अब आप ही बताएं इस आर्थिक युग में कौन अपना लाखों का नुकसान करवाएगा? आजकल मीडिया मार्केटिंग एक बहुत बड़ा हथियार है जिससे आप अपनी बात मनवा सकते हैं और मैं मानता हूँ कि बिहार में पिछले छह सालों में मीडिया मार्केटिंग के अलावा और कुछ भी नहीं हुआ है. क्यंकि आप ही देखिये कि छह साल पहले शपथ के ठीक बाद मीडिया के सामने बिहार से पलायन रोकने कि उद्घोषणा करने वाले सुशासन बाबु बिहार में कोई नया उद्योग स्थापित करना तो तो दूर पुराने उद्योग ही शुरू नहीं कर पाए, लेकिन मीडिया मार्केटिंग इनकी इतनी ज़बरदस्त थी, कि बिकास के नाम पर वापस सरकार में आ गए.
अब सरकार के लिए मीडिया मैनेज इसलिए भी आसान है क्यूंकि बिहार कि 89%
अखबार पढने वाले ज्यादातर लोग दो ही अखबार पढ़ते हैं, दैनिक हिंदुस्तान और दैनिक जागरण. ऐसे में सरकार के लिए दो अखबार मैनेज करना कोई बड़ी बात नहीं है. वैसे भी सुशासन बाबू के लिए एक सुविधाजनक बात ये भी है कि सत्तारूढ़ जनता दल (यू) के एक सांसद एन. के. सिंह एचटी मीडिया के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर में भी शामिल हैं. इन सब परिस्थितियों के कारण अखबार नीतीश सरकार को खुश करने के लिए ज्यादा ही तत्पर रहते हैं. कभी-कभी तो मुझे लगता है कि यहाँ सरकार का जनसंपर्क विभाग बंद हो गया है और ये काम सुशासन बाबू ने यहाँ के अखबारों को दे दिया है, जो दिन भर सरकार के बखान में लगे रहते हैं. सरकार अपनी छवि चमकाने के लिए जनता का पैसा विज्ञापन के रूप में बड़े अखबारों पर लुटा रही है और अपनी सत्ता वापसी के रास्ते बना रही है. पहले जनाधार वाली पार्टियाँ मीडिया को आधारविहीन मानती थी और कर्म पर विश्वास करती थी पर समय बदल गया है. पार्टियां मीडिया के द्वारा छवि निर्माण करने में लगीं हैं. राजनीतिक पार्टियां मुख्यधारा के मीडिया का इस्तेमाल कर उन वोटरों को प्रभावित करने में लगीं हैं, जो पाठक-दर्शक भी हैं और इसका सदुपयोग या यों कहें कि सबसे बड़ा उदहारण बिहार है. साफ़ शब्दों में अगर कहें तो लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ अब पुर्णतः बिक चूका है और राजनीति में इस खरीद-बिक्री का श्रेय पूरी तरह से श्रधेय श्री नीतीश कुमार जी को जाता है, जिन्होंने बहुत गलत परंपरा कि शुरुआत कर दी है. ऐसे में लोकतंत्र पर सबसे बड़ा खतरा ये है कि अब हर कोई मीडिया को सेंसर कर जनमत को प्रभावित करने कि कोशिश करेगा जैसा कि नीतीश कुमार कर रहे हैं. इसलिए अब समय आ गया है कि जनता जागे और असलियत को समझे. लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने वाला अपने ऊपर से बिकाऊ का लेबल हटा कर एक स्वच्छ छवि का निर्माण करें जिससे देश और समाज दोनों का भला हो.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें