सोमवार, 4 जुलाई 2011

बिहार- सुशासन पर भारी भ्रष्टाचार...

पांच साल पहले नवम्बर 2005 में अप्रत्याशित जीत के साथ नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिए. एक लम्बे अंतराल के बाद इतना बड़ा परिवर्तन यहाँ हुआ था. इस परिवर्तन के कई कारण माने जाते हैं, जैसे लालू प्रसाद के जंगलराज और कुशासन से लोग त्रस्त हो चुके थे. साथ ही फ़रवरी 2005 में त्रिशंकु लोकसभा के बाद बिहार में छह महीने का राष्ट्रपति शासन ने लोगों को प्रशासन में नयी व्यवस्था के लिए आकर्षित किया. लेकिन साथ ही "नीतीश कुमार, नया बिहार" का नारा देकर ब्रांड नीतीश को बिहार के सुख और समृद्धि के पासपोर्ट के तौर पर वोट रुपी बाज़ार में उतारा. इन्होने पांच साल तक मीडिया का भरपूर उपयोग करते हुए अपनी पूरी मीडिया मार्केटिंग की और दुबारा 2010 में भी अपनी धमाकेदार वापसी की.

लेकिन अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या सचमुच बिहार की तरक्की हुई है, क्या जंगलराज से मुक्ति मिल गयी है और बिहार भ्रष्टाचारमुक्त हो चूका है? जब इसका जवाब आप ढूँढने निकलेंगे तो सौ मुंह और सौ बातें होंगी. पर चलिए आज हम सच्चाई से ज़रा रूबरू हो जाएँ. अगर हम CAG (Comptroller and Auditor General) की 2008-2009 की रिपोर्ट देखेंगे तो पाते हैं कि बिहार में 11000 करोड़ का बिल प्रस्तुतिकरण या निधियों के दुरूपयोग का राजकोष घोटाला हुआ. ये घोटाला पशुपालन के 1000 करोड़ से कितना गुना ज्यादा है इसका अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं. इसी वर्ष के CAG रिपोर्ट में एक और बहुत बड़ा और चौकाने वाला मामला सामने आया था. वर्ष 2007 के अगस्त से अक्टूबर के दौरान बिहार के कोसी बाढ़ पीड़ितों को भेजा जाने वाला करीब 3000 क्विंटल से ज्यादा के अनाज वितरण में ज़बरदस्त अनियमितता देखने को मिला है. बिहार राज्य खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति निगम खगड़िया के अंतर्गत मानसी रेलवे स्टेशन से 32 ट्रकों से अनाज उठा कर नियत स्थान पर पहुँचाया गया. लेकिन जांच के बाद जब उन ट्रक के पंजीकृत नंबरों को खंगाला गया तो पाया गया कि अधिकतम नम्बर मोटरसाईकिल, ट्रैक्टर, स्कूटर, जीप और मिनी ट्रक के निकले. अब तो ऐसा लगता है कि ये अनाज ज़रुरतमंदों तक पहुँच भी पाया कि नहीं?

घोटालों की फेहरिस्त को आगे बढाते हुए अब हम चलते हैं स्वास्थ्य सेवा की ओर. CAG के रिपोर्ट में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन योजना में धोखाधड़ी कर धन निकासी का मामला प्रकाश में आया है. जननी सुरक्षा योजना के तहत प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में बच्चों को जन्म देने वाली माताओं को हर जन्म पर 1400 रुपये सहायता राशि स्वरुप मिलती है और CAG के रिपोर्ट के अनुसार पांच जिलों के 14 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों (किशनगंज, भागलपुर, नालंदा, गोपालगंज और पूर्वी चंपारण) के लिए छह लाख साठ हज़ार रुपये निकाले गए हैं. साथ ही रिपोर्ट में यह भी दर्शाया गया है कि इन पैसों में 298 महिलाएं लाभान्वित हुई हैं और दो से पांच बच्चों को महज दो महीने में जन्म देकर इस राशि से इन महिलाओं को नगद लाभ हुआ है. अब आप ही सोच सकते हैं कि भ्रष्टाचार किस चरमसीमा तक पहुँच चुकी है. ये तो सिर्फ 14 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों रिपोर्ट है. ज़रा आप ही अब अंदाजा लगायें कि अगर पूरी 534 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के बारे में रिपोर्ट आ गयी तो ये धन निकासी का आंकड़ा क्या होगा?

खैर ये तो बात थी आंकड़ों कि लेकिन जब आप आंकड़ों से हट कर बात करेंगे तो पता चलेगा घोटालों और भ्रष्टाचार कि हालत बिहार में किस चरमसीमा तक पहुँच चुकी है. बिहार के हर एक प्रखंड में एक पद है CDPO (child development project officer) का. जिसके अन्दर करीब 200-300 आंगनबाड़ी आते हैं. यहाँ कहा जाता है कि एक CDPO कि सरकारी वेतन चाहे जो भी हो लेकिन उन्हें हर आँगनबाड़ी से गैर सरकारी वेतन अर्थात अतिरिक्त आमदनी 1100 रुपये कि होती है. तो आप ज़रा अंदाजा लगायें कि अगर 200-300 आंगनबाड़ी से इतनी ही रकम अगर हर महीने मिले तो इनकी आमदनी प्रतिमाह लाखों में हो रही है. ये सिर्फ मैं नहीं, आँगनबाड़ी में कार्यरत हर कोई जानता और कहता है. अब यहाँ देखने कि बात ये है कि ये पैसा सिर्फ प्रखंड के CDPO के पास ही रहता है या इसे ऊपर तक कई हिस्सों में बांटा जाता है. अब ज़रा हम बिहार के स्कूलों का रूख करेंगे तो यहाँ भी भ्रष्टाचार कम नहीं है. यहाँ हर स्कूल को "मिड डे मील" के नाम पर कई क्विंटल अनाज दिया जाता है. लेकिन अगर आप स्कूल में विद्यार्थियों की उपस्थिति देखने जायेंगे तो पता चलेगा कि करीब 300विद्यार्थियों में से 50-60 ही स्कूल में उपस्थित हैं. लेकिन आप स्कूल का उपस्थिति रजिस्टर चेक करेंगे तो पायेंगे को कम से कम 90 से 95 प्रतिशत विद्यार्थी उपस्थित हैं. अब सवाल ये उठता है कि ये सिर्फ कागज़ी उपस्थिति क्यूँ? असल में ऐसा इसलिए है कि ज्यादा उपस्थिति दर्ज कराने के बाद बचा हुआ "मिड डे मील" का अनाज बाज़ार में बेच दिया जाता है. ये सिर्फ सरकार ही नहीं देख पा रही है जबकि गाँव का हर व्यक्ति खुलेआम ये कहानी आपको सुना और दिखा सकता है. अब इतना बड़ा घोटाला हो रहा है तो क्या बड़े अफसरों को इसकी जानकारी नहीं है? वैसे जानकारी है भी तो वो कुछ नहीं करेंगे क्यूंकि उनका हिस्सा जो उनके पास पहुँच जाता है.

चलिए अब हम अपना रूख बिहार के कुछ सत्ताधारी विधायकों कि तरफ करते हैं और उनकी संपत्तियों कि वृद्धि दर के बारे में पता करते हैं. इससे आपको पता चलेगा कि जनता कैसे हलाल हो रही है और हमारे विधायक इस सुशासन राज में कैसे मालामाल हो रहे हैं. इनकी संपत्ति की वृद्धि दर देख कर आप भी चौंक जायेंगे.

NDA MLA
विधायक             विधानसभा            2005                  2010
वृषण पटेल           वैशाली            11.27(लाख)            1.72(करोड़)
दामोदर सिंह         महाराजगंज        2.90(लाख)           57.36(लाख)
गुड्डी देवी            सैदपुर              3.11(लाख)            68.46(लाख)
मनोज कु.सिंह        कुढ़नी             23हज़ार                40.90(लाख)
अनंत कुमार           मुंगेर            13.91 लाख            59.12 लाख
अनिल कुमार          विक्रम            31.47 लाख           1.27 करोड़
अनिरूद्ध कुमार         निर्मली           25.14 लाख           1.11 करोड़
अमरेंद्र प्रताप सिंह     आरा            10.9 लाख            32.58 लाख
अशोक कुमार यादव     केवटी           14.27 लाख          51.48 लाख
नीतीश कुमार मिश्रा    झंझारपुर          37.39लाख          1.32 करोड़
पूर्णिमा यादव           नवादा            34.92 लाख            2.78 करोड़
रेणु देवी प.            चंपारण             41.31 लाख          2.11 करोड़
एसएन आर्या          राजगीर            24.78 लाख           1,6 करोड़ (सौजन्य- महुआ न्यूज़)

ऊपर के आंकड़ों को देख कर आप तो अंदाजा लगा ही चुके होंगे कि सुशासन कुमार के ऑफिसर और विधायकगण पूरी इमानदारी के साथ जनसेवा में लगे हुए हैं. नीतीश कुमार जी की इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम में उनका बढ़ चढ़ कर साथ दे रहे हैं, इससे आपको अब अंदाजा हो गया होगा कि सुशासन के इस थोथेबाजी में भ्रष्टाचार किस तरह से हावी है. मेरा बस मुख्यमंत्री जी से अनुरोध है कि मीडिया मैनेजिंग छोड़ के कुछ बिहार मैनजेमेंट के बारे में सोचे और सिर्फ मीडिया में ही नहीं असल में भी बिहार को सर्वश्रेष्ट राज्य बनाने के लिए कदम उठायें.

मंगलवार, 14 जून 2011

बिहार- सुशासन में मीडिया का योगदान.....

बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार का नाम जनता ने आज बदल कर सुशासन कुमार रख दिया है. क्यूंकि चारो ओर खुशहाली और हरियाली दिख रही है. पर आज मैंने इसी सुशासन कुमार के राज्य का एक तालिबानी विडियो क्लिप किसी न्यूज़ चैनल पर देखा, जिसने मेरे रौंगटे खड़े कर दिए. इस क्लिप को देखने बाद से मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मैं मुख्यमंत्री का नामकरण सुशासन कुमार करूं या फिर कुशासन कुमार? इस क्लिप में हाल ही में अररिया, फारवीसगंज में हुए गोलीकांड के बाद का जिक्र है. जिसमे एक पुलिसवाला 16-17 साल के बेहोश पड़े हुए बच्चे के चेहरे पर घुटने के बल कूद जाता है. फिर अपने बूट से उसके सर पर निर्मम वार करता है. अब इससे भी मन नहीं भरा तो अपने साथी से डंडा मांगने लगता है, जिसे उसके साथी ने मना कर दिया. सच में अगर आपने वो विडियो क्लिप देख लिया तो आपका खून खुल उठेगा इस सरकार के खिलाफ. http://aajtak.intoday.in/videoplay.php/videos/view/57589/2/206/what-should-be-name-of-this-barbaric-act.html
जी हाँ यहाँ मैंने वेब एड्रेस डाला है इस URL को आप कॉपी पेस्ट करके वो विडियो क्लिप देख सकते हैं.

जब मैंने ये देखा तो इस खबर को विस्तार से जानने के लिए मैंने जांच-पड़ताल शुरू कर दी, तो पता चला कि ये ज़मीन अधिग्रहण का मामला है. सरकार ने ओरो सुंदरम इंटरनेशनल प्रा. लि. को एक फैक्ट्री लगाने के लिए ज़मीन बेचीं थी. पर जो ज़मीन फैक्ट्री को दी गयी वो गांव आने जाने का एकमात्र सार्वजनिक रास्ता है जिस पर कई सरकारी निधियों द्वारा सड़क निर्माण के नाम पर पैसा लगाया जा चूका है. जिससे गांववाले उसी रास्ते से गांव कि अन्दर बाहर जाते थे और इसी का विरोध गांव वालों ने किया. पर सुशासन सरकार ने गाँव वालों के विरोध के खिलाफ जो पुलिसिया कारवाई की वो बेहद शर्मनाक थी. सरकार ने तो इंदिरा सरकार के आपातकाल दौर को भी पीछे छोड़ दिया, जिसका एक अंश आप उस विडियो क्लिप में भी देख सकते हैं. वहां पुलिस द्वारा ज़बरदस्त गोलीबारी की गयी जिसमे सरकारी आंकड़ों के हिसाब से चार लोगों की मौत हो गयी. अब सवाल ये उठता है कि गलत ज़मीन क्यूँ सरकार द्वारा बेचीं गयी और जब गाँव वालों ने विरोध किया तो ये तालिबान की तरह पुलिसिया कारवाई क्यूँ कि गयी? कहीं इसमें सरकार या फिर सरकार में शामिल किसी का स्वार्थ तो नहीं छिपा हुआ था? जी हाँ, ओरो सुंदरम इंटरनेशनल प्रा. लि. के निदेशक अशोक चौधरी हैं और इसमें भाजपा के विधान पार्षद अशोक अग्रवाल के पुत्र सौरभ अग्रवाल भी साझेदार हैं. तो अब सवाल ये उठता है कि कही ये कारवाई सरकार इशारे पर तो नहीं हुई?

खैर इसमें साझेदार जो भी है पर सबसे बड़ा सवाल ये है कि नंदीग्राम के बराबर का ये कांड था पर बिहार कि मीडिया में इस खबर को कितनी प्रमुखता से छापा गया? बिहार के तीन-चार प्रमुख और चर्चित अखबार हैं, जिसमे फारविसगंज की खबर को प्रमुखता से नहीं बस एक सूचना के तौर पर जगह मिली. चाहे वो, दैनिक हिन्दुस्तान हो, चाहे दैनिक जागरण या फिर प्रभात खबर. अगर घटना के दुसरे दिन रविवार 5 जून का अखबार आप देखंगे तो पाएंगे कि बड़े अखबारों हिन्दुस्तान और दैनिक जागरण के पटना संस्करण के पहले पन्ने पर फारबिसगंज पुलिस गोलीबारी से संबंधित कोई खबर ही नहीं थी. इतना ही नहीं शनिवार को उपरोक्त अखबारों में इस गोलीकांड के विरोध में भाकपा (माले) द्वारा निकाले गये प्रतिवाद मार्च की खबर या तो अंदर के पन्नों पर किसी कोने में इस तरह छापी गयी कि मुश्किल से उस पर नजर पड़ती. या फिर इस मार्च को हिंदी अखबारों ने कोई जगह ही नहीं दी. दरअसल बड़े हिंदी अखबारों ने यह दिखाने की पूरी कोशिश की, कि इस बर्बर घटना के बावजूद राजधानी पटना में सब शांति-शांति है. लेकिन लोकतंत्र का ये चौथा स्तम्भ बिहार में इतना पंगु क्यों है, शायद इन्हें लगता है कि अगर जनता को इस बर्बरता के बारे में बताने से बिहार के मीडिया को नियंत्रित करने वाला मुख्यमंत्री सचिवालय नाराज हो जायेगा और वहां से बहने वाले विज्ञापनों के श्रोत सूखने लगेंगे. लेकिन ऐसी सोच इनकी हो गयी है तो लोकतंत्र का स्तम्भ कहलाने का क्या हक है इन्हें?

अगर हम नीतीश सरकार के पिछले छह साल के कार्यकाल पर नज़र डालें तो यह निष्कर्ष निकलता है कि बड़े अखबारों के निष्पक्ष नहीं रहने का यह कोई पहला मामला नहीं है और अंतिम तो बिल्कुल नहीं. फारबिसगंज गोलीबारी की घटना का इन अखबारों ने जिस तरह से कवरेज किया वो इसका एक नया उदाहरण मात्र है. जंगलराज की समाप्ति के बाद आज भी बिहार में पुलिस अत्याचार, भ्रष्टाचार, हत्या, अपहरण, फिरौती, बलात्कार जैसी घटनाएं बड़े पैमाने पर घट रही हैं. पर राजद सरकार में ऐसी ख़बरें प्रमुखता से पहले पन्ने पर आती थी जिसे अब धकेल कर अंदर के पन्नों में भेज दिया गया है या फिर ये खबर बनती ही नहीं है. क्यूंकि इससे इनके सुशासनी दावों कि पोल खुल जाएगी और अगर अखबार सरकार की पोल खोलना शुरू कर देंगे तो मुख्मंत्री सरकारी विज्ञापन देना बंद कर देंगे. अब सीधा दोष हम सरकार का भी नहीं दे सकते क्यूंकि व्यासायिक दृष्टिकोण यही कहता है कि अखबार चलाने के लिए पैसा चाहिए, अगर सरकार का तलवा चाटने से ही ये कमी पूरी होती है तो यही सही. जी हाँ, अगर आप अखबार देखें तो पाएंगे कि सरकारी विज्ञापनों से हर पन्ना पटा रहता है और सुशासन बाबू का स्पष्ट निर्देश है कि जो भी अखबार उनके खिलाफ खबर छापे उनका विज्ञापन बंद कर दो. अब आप ही बताएं इस आर्थिक युग में कौन अपना लाखों का नुकसान करवाएगा? आजकल मीडिया मार्केटिंग एक बहुत बड़ा हथियार है जिससे आप अपनी बात मनवा सकते हैं और मैं मानता हूँ कि बिहार में पिछले छह सालों में मीडिया मार्केटिंग के अलावा और कुछ भी नहीं हुआ है. क्यंकि आप ही देखिये कि छह साल पहले शपथ के ठीक बाद मीडिया के सामने बिहार से पलायन रोकने कि उद्घोषणा करने वाले सुशासन बाबु बिहार में कोई नया उद्योग स्थापित करना तो तो दूर पुराने उद्योग ही शुरू नहीं कर पाए, लेकिन मीडिया मार्केटिंग इनकी इतनी ज़बरदस्त थी, कि बिकास के नाम पर वापस सरकार में आ गए.

अब सरकार के लिए मीडिया मैनेज इसलिए भी आसान है क्यूंकि बिहार कि 89%
अखबार पढने वाले ज्यादातर लोग दो ही अखबार पढ़ते हैं, दैनिक हिंदुस्तान और दैनिक जागरण. ऐसे में सरकार के लिए दो अखबार मैनेज करना कोई बड़ी बात नहीं है. वैसे भी सुशासन बाबू के लिए एक सुविधाजनक बात ये भी है कि सत्तारूढ़ जनता दल (यू) के एक सांसद एन. के. सिंह एचटी मीडिया के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर में भी शामिल हैं. इन सब परिस्थितियों के कारण अखबार नीतीश सरकार को खुश करने के लिए ज्यादा ही तत्पर रहते हैं. कभी-कभी तो मुझे लगता है कि यहाँ सरकार का जनसंपर्क विभाग बंद हो गया है और ये काम सुशासन बाबू ने यहाँ के अखबारों को दे दिया है, जो दिन भर सरकार के बखान में लगे रहते हैं. सरकार अपनी छवि चमकाने के लिए जनता का पैसा विज्ञापन के रूप में बड़े अखबारों पर लुटा रही है और अपनी सत्ता वापसी के रास्ते बना रही है. पहले जनाधार वाली पार्टियाँ मीडिया को आधारविहीन मानती थी और कर्म पर विश्वास करती थी पर समय बदल गया है. पार्टियां मीडिया के द्वारा छवि निर्माण करने में लगीं हैं. राजनीतिक पार्टियां मुख्यधारा के मीडिया का इस्तेमाल कर उन वोटरों को प्रभावित करने में लगीं हैं, जो पाठक-दर्शक भी हैं और इसका सदुपयोग या यों कहें कि सबसे बड़ा उदहारण बिहार है. साफ़ शब्दों में अगर कहें तो लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ अब पुर्णतः बिक चूका है और राजनीति में इस खरीद-बिक्री का श्रेय पूरी तरह से श्रधेय श्री नीतीश कुमार जी को जाता है, जिन्होंने बहुत गलत परंपरा कि शुरुआत कर दी है. ऐसे में लोकतंत्र पर सबसे बड़ा खतरा ये है कि अब हर कोई मीडिया को सेंसर कर जनमत को प्रभावित करने कि कोशिश करेगा जैसा कि नीतीश कुमार कर रहे हैं. इसलिए अब समय आ गया है कि जनता जागे और असलियत को समझे. लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने वाला अपने ऊपर से बिकाऊ का लेबल हटा कर एक स्वच्छ छवि का निर्माण करें जिससे देश और समाज दोनों का भला हो.

सोमवार, 31 जनवरी 2011

तिरंगे की राजनीति...

तिरंगा शब्द हमारे ज़ेहन में आते ही एक अजीब सी स्फूर्ति बदन में आ जाती है. हमारा सर गर्व से ऊँचा हो जाता है साथ ही हमें फख्र होता है कि हम विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र के नागरिक हैं. हमसब के लिए हिन्दुस्तानी होना ही बहुत बड़ी बात है. साथ ही हमारा राष्ट्रीय ध्वज जिसके लिए जाने कितने लोग आज़ादी के दौरान वन्दे मातरम् बोलते हुए शहीद हो गए. हर 26 जनवरी और 15 अगस्त को अपने तिरंगे का ध्वजारोहण करके अपने शहीदों का सम्मान और अपनी आज़ादी का जश्न मनाते हैं. इस दिन हिन्दुस्तान के हर हिस्से में हर घर, हर शहर, हर चौक एवं चौराहे पर हम सब तिरंगा फहराते हैं और इसका अधिकार हर हिन्दुस्तानी को है. परन्तु हम 26 जनवरी को अपने ही देश के एक राज्य जम्मू कश्मीर के लाल चौक पर तिरंगा नहीं फहरा सकते. जी हाँ ये बिलकुल सही है, पर ऐसा क्यूँ है?

कुछ दिनों पहले भाजयुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुराग ठाकुर भारत भ्रमण करते हुए जम्मू कश्मीर पहुँच कर वहां लाल चौक पर झंडा फहराने का कार्यक्रम बनाया था. पर उन्हें और साथ ही सभी बड़े नेताओं को जम्मू कश्मीर कि सीमा पर ही गिरफ्तार कर लिया गया. यहाँ सवाल भाजपाई होने का नहीं है यहाँ सवाल है, कि हम लाल चौक पर झंडा क्यूँ नहीं फहरा सकते? प्रधानमंत्री का कहना है, कि जम्मू कश्मीर एक संवेदनशील राज्य है, पर ये संवेदनशीलता तब कहाँ चली जाती है जब इसी जम्मू कश्मीर के लाल चौक पर जहाँ कभी हरे रंग का इस्लामिक झंडा, तो कभी पाकिस्तानी झंडा फहराया जाता है. लेकिन हमारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने में हिन्दुस्तान की सरकार को ऐतराज़ है. आप अपने ही देश किसी हिस्से में इसे प्रतिबंधित कैसे कर सकते हैं. यहाँ पिछले कई सालों तक 14 अगस्त को पाकिस्तानी झंडा फहराया जाता था और हमारी सरकार ख़ामोशी से अलगाववादियों के हौसले बुलंद किये. इन्ही कारणों से करीब यहाँ से 200 मीटर दूर CRPF के बंकर में तिरंगा नहीं लहराया जा सका. ये तो कुछ भी नहीं, श्रीनगर के कुछ इलाकों में अलगावादियों के हौसले इतने बुलंद है की वहां इन्होने बोर्ड तक लगाया हुआ है “Welcome to Chhota Pakistan” का. पर सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. पर उन्हें तब फर्क ज़रूर पड़ता है जब आप अपने ही देश के इस हिस्से में तिरंगा फहराते हैं.

वैसे आज ये बहुत बड़ा मुद्दा है कि हम लाल चौक पर झंडा नहीं फहरा सकते. पर भाजपा वालों की एक और मांग है, कि धारा 370 समाप्त करो वरना आन्दोलन होगा. अब यहाँ असल में सोचने की बात बात ये है कि भाजपा का सच में कश्मीर से कन्याकुमारी तक अखंड भारत का सपना है और सब जगह एक सामान क़ानून हो या फिर ये सिर्फ राजनीतिक एजेंडा बना कर ढोंग कर रहे हैं. क्यूँ जब इनकी सरकार लगातार 5 साल तक थी तब तो इन्होने 370 खत्म करने की कोई कवायद नहीं की? अगर सच में ये इमानदारी से इस मुद्दे के खिलाफ थे तो अपनी ये मांग अपनी ही सरकार में बखूबी पूरा कर सकते थे.पर नहीं जी, इन्हें तो राजनीतिक डपोरशंखी चाहिए जिससे मुद्दा बना कर ये चुनाव लड़ सकें. लाल चौक पर झंडा नहीं फहराने से हर हिन्दुस्तानी आहत ज़रूर है पर भाजपा की इस गन्दी राजनीति से ज्यादा आहत है.

पहले यहाँ सवाल ये उठता है कि क्यूँ इस सरकार को हरबार ये बोलने की ज़रूरत पड़ती है "कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है?" इसका उत्तर साफ़ है कि इनके ही सहयोगी नेशनल कांफ्रेंस जिसकी सरकार के मुख्यमंत्री जम्मू कश्मीर के हैं, उनका एक बयान आया था कि “जम्मू कश्मीर का विलय ही अपूर्ण है” अब जिस सरकार का सहयोगी ऐसे बयान देंगे तो क्या होगा. यहाँ एक बात और गौर करने वाली है, कि अगर आप रेडियो सुनते हैं तो कभी आल इंडिया रेडियो का प्रसारण हिंदुस्तान के किसी हिस्से का सुन लें और साथ ही जम्मू कश्मीर का सुन लें आपको फर्क पता चल जायेगा. पटना प्रसारण से वक्ता कहता है कि “ये आल इंडिया का पटना केंद्र है, लखनऊ के कहते हैं “ये आल इंडिया का लखनऊ केंद्र है. ऐसा हिन्दुस्तान के हर हिस्से में कहा जाता है पर जम्मू कश्मीर की बात अलग है वहां के वक्ता कहते हैं कि “ये रेडियो जम्मू कश्मीर है” इन्हें इंडिया नाम लेना भी गंवारा नहीं है. यहाँ तक की रेवेन्यु स्टाम्प पूरे भारत का एक है पर जम्मू कश्मीर में वहां का अपना रेवेन्यु स्टाम्प चलता है. फिर भी सरकार बार बार चिल्ला चिल्ला के कैसे बोल रही है कि “कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है” सिर्फ ये कहने से कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है से हमारी एकता और अखंडता बनी नहीं रह सकती? अगर अपने ही देश के किसी हिस्से में तिरंगा फहराने से शांति भंग होने का खतरा होने का संकेत अगर ये सरकार दे रही है तो धिक्कार है ऐसी सरकार पर. कश्मीर जैसे मुद्दे पर तो सरकार की हालत बिलकुल शुतुरमुर्ग वाली है कि जो तूफ़ान आते ही अपना सर रेत में छुपा लेता है ये सोच कर कि शायद आने वाला तूफ़ान यू ही टल जायेगा. सरकार को कश्मीर पर अपनी नीति पुर्णतः स्पष्ट करनी पड़ेगी वरना ये एक छोटा सा घाव एक दिन कैंसर का रूप ले लेगा.

बुधवार, 12 जनवरी 2011

बेटी का जनाज़ा...

आज मध्य प्रदेश के अनुप पुर जिले में एक ऐसी घटना हुई, जिसने इंसानियत को झकझोर के रख दिया. अनूप पुर जिले के किसी गाँव में एक लड़की की उलटी और दस्त के कारण मृत्यु हो गयी. यह खबर वहां के पुलिस थाने तक पहुंची और थाने से फरमान आया कि लाश कि जांच थाने आ कर करवाओ. बेचारा लड़की का पिता गरीब था इसलिए बेटी की लाश ले जाने का कोई और साधन नहीं होने के कारण उसने अपनी सायकिल निकाली और कपडे के साथ कम्बल में लपेट कर लाश सायकिल के पीछे कैरिएर पर लाद कर ले गए. देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कोई सामान की गठरी ले कर जा रहा हो. थाने में प्राथमिक जांच के बाद लड़की के पिता से कहा गया की जिला अस्पताल जा कर लाश का पंचनामा करवा लो. पुलिस थाने से सिर्फ आदेश जारी हुआ इसके अलावा कोई सुविधा उन्हें मुहैया नहीं करवाई गयी. बेचारा लड़की का पिता अपनी बेटी की लाश वापस अपनी सायकिल के कैरियर पर लाद कर उसका पंचनामा करवाने जिला अस्पताल की तरफ निकल पड़ा. जिला अस्पताल वहां से करीब 25 किलोमीटर दूर था. करीब चार घंटे के सफ़र के बाद एक पिता अपनी बेटी की लाश का पंचनामा करवाने जिला अस्पताल पहुंचा. क्यूंकि सरकारी कारवाई के बाद एक पिता को बेटी की लाश वापस चाहिए उसका अन्तिम संस्कार करने के लिए. इसलिए वो अपनी बेटी के जनाज़े के साथ हो रही हर ज़िल्लत को बर्दाश्त करता रहा. वैसे ज़िल्लत बर्दाश्त करने के अलावा वो कुछ कर भी नहीं सकता था, क्यूंकि वो ग़रीब था.

अब यहाँ सवाल ये उठता है कि, क्या ग़रीब होना गुनाह है या फिर सविंधान इन्हें जीने का कोई हक नहीं देता है. मध्य प्रदेश सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चौहान खुद को ग़रीबों का सबसे बड़ा हितैषी बताते हैं. उनके अनुसार उनके यहाँ अधिकतम योजनायें ग़रीबों के हित के लिए ही है और सबसे बड़ी बात ये है कि कुछ दिनों पहले से मध्य प्रदेश सरकार वहां के पुलिसवालों को ट्रेनिंग दे रही है और एक बृहत् कार्यक्रम पुलिस वालों के लिए चला रही है जिसका मकसद है कि "मध्य प्रदेश पुलिस, जनता के समक्ष कैसे सभ्य और विनम्र रहे." अगर वहां के पुलिस की ये विनम्रता है तो ये क्रूर हो जाए तो आप ही अंदाजा लगायें कि आलम क्या होगा? मुझे कायदा कानून की ज्यादा जानकारी नहीं है पर कोई मुझे ये बताये कि अगर कही कोई हादसा हो जाये तो सरकारी संस्थाएं अगली कारवाई के लिए सुविधाएँ प्रदान करती हैं या नहीं या फिर इन्ही पुलिस वालों की तरह अपनी हैवानियत वाली शक्ल दिखाती रहती हैं? शायद यहाँ मेरा कहना ये गलत नहीं होगा कि हमारा सविंधान ये सुविधाएँ हैसियत देख कर देती है, अगर ये किसी मंत्री, विधायक या सांसद के साथ हुआ होता तो हमारा सरकारी तंत्र क्या ऐसे ही काम कर रहा होता?

इतने बड़े हादसे के बाद वहां मुख्यमंत्री जी प्रेस के सामने आये और आते ही उन्होंने इस पूरी घटना कि निंदा की और न्यायिक जांच का आदेश देते हुए वहां के ए. एस. आइ. को बर्खास्त कर दिया. मेरे विचार में ये खानापूर्ति कि अलावा कुछ भी नहीं था. आज हमारे देश के किसी भी हिस्से में कुछ होता है तो सरकार का मुखिया एक जांच समिति बना कर मामले को रफा दफा कर देता है. ये शायद इन ग़रीबों का दुर्भाग्य है कि इन्हें ऐसे ही प्रशासक मिलते हैं. मुझे ये पता नहीं आज जो कुछ भी हुआ उसे कैसे रोका जा सकता था पर साफ़ शब्दों में मैं कहना चाहता हूँ की जो भी हुआ वो इंसानियत को शर्मसार करने के लिए काफी था. यह दृश्य टी.वी. पर देखने के बाद से मेरी अंतरात्मा मुझे झकझोर रही है और बार बार यही आवाज़ आ रही है कि "हाय रे गरीबों कि सरकार"

पुलिस और सरकारी तंत्र से तो ऐसी ही आशा थी पर वहां आस-पास के लोग जो मूकदर्शक बने हुए थे उन्हें क्या कहना चाहिए? हम क्यूँ हर बात पर सरकार को दोष देते हैं? अगर हम बदलेंगे तभी सरकार की सोच बदलेगी. आज जब मैंने टी.वी. पर उस व्यक्ति को अपनी बेटी की लाश ले कर इधर उधर भटकते हुए देखा तो मुझे लगा की वहां आस-पास मौजूद लोगों की आत्मा बिलकुल मर चुकी है. ये दुनिया जानती है कि हमारे राजनेता और मंत्रियों के पास तो आत्मा नाम कि कोई चीज़ ही नहीं होती. लेकिन हम क्यूँ उनके नक़्शे कदम पर चल रहे हैं. ज़रा सोचिये वो बाप जिसने अपनी बेटी की डोली उठाने की सोची होगी, कभी उसने सोचा होगा कि उसकी बेटी कि विदाई खूबसूरत डोली में करेगा. वो आज अपनी बेटी के जनाज़े को ले कर इधर उधर भटक रहा है और ये पुलिस और प्रशासन इनका मज़ाक बना रही है. अब वक़्त आ गया है कि हम सरकार के भरोसे न रह कर खुद आगे आयें और इसके खिलाफ आवाज़ उठायें. ताकि इन ग़रीबों की डोली उठाने में तो हम सहयोग नहीं कर पाए पर इनकी अर्थी इनके घर से इज्ज़त के साथ उठे और इस ग़रीब कि बेटी कि विदाई इतनी ज़िल्लत से न हो...

बुधवार, 5 जनवरी 2011

ये हैं जनप्रतिनिधि

कल एक जबरदस्त न्यूज़ जंगल में आग की तरह फैली कि, बिहार में पूर्णिया के विधायक राजकिशोर केसरी की एक महिला ने निर्मम हत्या कर दी. वैसे तो हत्या का मूल कारण जांच के बाद ही पता चलेगा लेकिन पहली नज़र में अगर देखें तो कुछ अजीब सी ही बातें सामने आती हैं, जो हमें बिलकुल स्तब्ध कर देती है. आरोपी महिला रूपम पाठक ने विधायक और उनके सहयोगियों पर यौन दुराचार का आरोप लगाया था. उसके बाद 18 अप्रेल 2010 को पुलिस अधीक्षक से मिल कर लिखित शिकायत दर्ज किया. अब यहाँ ऐसा प्रतीत हो रहा है कि समय पर कारवाई नहीं होने के कारण ही महिला ने ये दुस्साहस करने कि ठानी. अब यहाँ राजनीति शुरू हो चुकी है और आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है. लेकिन यहाँ अगर आम जनता का मत agar हम जानें तो पाते हैं कि रूपम पाठक के द्वारा न्याय के लिए अपनाये गए तरीके को गलत मानते हैं पर विधायक जी को भी साफतौर से बरी नहीं कर रहे हैं.

यहाँ सचमुच ये अब चिंतन का विषय हो गया है कि, कहलाते तो ये जनप्रतिनिधि हैं. लेकिन जनता के सामने कभी इनकी छवि साफ़ सुथरी नहीं होती. ऐसा नहीं है कि सभी जनप्रतिनिधि ऐसे ही हैं. परन्तु हमारे दिमाग में ऐसी ही छवि बनी हुई है. ये सिर्फ एक जगह कि हालत नहीं है. कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के एक बसपा विधायक पर भी बलात्कार का इलज़ाम लगा है और वो बचाव में बयान देते फिर रहे हैं. मैं उस महिला के कदम को बिलकुल सही नहीं मानता हूँ. पर ज़रा सोचिये कि कोई भी महिला इस तरह के अंजाम तक किस हालात में पहुँच सकती है. यहाँ मतलब साफ़ है कि, क़त्ल एक अन्तिम हथियार ही बचता है. जब क़ानून से आपका विश्वास उठ जाये तो शायद इसके अलावा कोई उपाय नहीं बचता है. वैसे इस तरह के हत्याकांड को समाज सिरे से नकारते हैं लेकिन कोई व्यक्ति करे तो आखिर क्या, जब हमारा सविंधान ही हमारी रक्षा न कर पाए तो?

इस हत्याकांड के बाद जब मैंने अपने उपमुख्यमंत्री श्री सुशील कुमार मोदी जी का बयान सुना तो मैं बिलकुल ही हतप्रभ रह गया. बिना किसी जांच के और बिना किसी परिस्थिति को जाने कोई ऐसा गैर जिम्मेदारी वाला बयान कैसे दे सकता है? सुशील कुमार मोदी ने राजकिशोर केसरी को क्लीन चिट देते हुए सारे आरोप उक्त महिला रूपम पाठक के सर मढ़ दिया. उन्होंने महिला पर आरोप लगाया कि "रूपम पाठक विधायक को ब्लैक मेल कर रही थी" परन्तु कोई ज़रा हमें ये बताये कि कोई भी इंसान किसी को ब्लैक मेल किस आधार पर कर सकता है. बचपन में सुनी हुई एक कहावत है कि "धुंआ वही उठता है जहाँ आग आग लगी रहती है" तात्पर्य ये है कि अगर वो विधायक को ब्लैक मेल कर रही थी तो ये बात यहाँ साफ़ है कि विधायक जी के खिलाफ कोई सबूत उनके पास था जिसके कारण सुशील कुमार मोदी ये कह रहे हैं कि महिला विधायक को ब्लैक मेल कर रही थी. मेरा राजनेताओं से अनुरोध है कि पहले वस्तुस्थिति को समझने की कोशिश करें फिर कोई बयान दें.

मैं मानता हूँ कि विधायक कि हत्या निहायत ही गलत कदम है. उस महिला का आरोप अगर सच भी है फिर भी ये तरीका बिलकुल गैरकानूनी और गलत है. पर हमें फिक्र इस बात कि होनी चाहिए कि उस महिला ने अब तक कोई सबूत नहीं दिए हैं फिर भी आम जनता विधायक के करतूत को सही मान रही है. हर कोई यही कह रहा है कि महिला झूठ नहीं बोल रही है. पर ज़रा हम विधायक के सहयोगियों को देखें तो उन्हें उस महिला पर आरोप लगाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है. क्यूंकि इस हत्या के बाद उनके सहयोगियों ने मार-मार कर उसे अधमरा कर दिया. क्या ये न्याय संगत था?

ऐसा लगता है कि हर पार्टी और हर प्रदेश में ऐसे लोग मौजूद हैं जो कही न कहीं किसी न किसी काण्ड में लिप्त हैं. पर पार्टी इन्हें बाहर निकालने या इनपर कारवाई करने का कोई व्यस्थित उपाय नहीं कर रही है. हर पार्टी को अपने विरोधी पार्टी में अपराधी तत्व नज़र आते हैं और उस वक़्त ये मसला सबसे अहम् हो जाता है पर एक बार अपने गिरेबान में झाँकने की भूल कभी नहीं करते. यहाँ सवाल सिर्फ माननीय जनप्रतिनिधि के अपराधिक या चारित्रिक मामले लिप्त होने का नहीं है, सवाल ये है कि अगर हमारे माननीय जनप्रतिनिधि ऐसे होंगे तो हम आम जनता से कानून पालन करने कि क्या उम्मीद कर सकते हैं...