मंगलवार, 31 अगस्त 2010

नक्सली कौन...?

आज सुबह मैं बड़ी मीठी नींद में सोया हुआ था कि मेरे फ़ोन के घंटी बज उठी. मुझे बड़ा गुस्सा आया क्यूंकि बीती रात मैं देर से सोया था. बड़े अनमने ढंग से मैंने फ़ोन उठाया तो पता चला की फ़ोन मेरे पिता जी का था. आधी नींद में ही मैं उनसे बात कर रहा था. पर पिता जी ने एक ऐसा समाचार सुनाया कि मेरे बिलकुल ही होश उड़ गए और मेरी नींद कहाँ चली गयी मुझे पता ही नहीं चला. अब मैं उस समय से उठ कर आत्मंथन में लगा हुआ हूँ कि ये क्या हो रहा है. जो भी समाचार मुझे मेरे पिता जी ने सुबह सुबह दिया उसके बारे में सोच कर समझ नहीं आ रहा है कि ये दोष किसे दूं मैं.

असल में हमारे एक पारिवारिक मित्र हैं जो मेरे पिता जी के साथ स्कूल में पढ़ते थे. इनके परिवार के साथ हमारा बड़ा ही घनिष्ठ सम्बन्ध है. आपको जैसा कि ज्ञात होगा कि गत दिनों बिहार के लखीसराय जिले में नक्सलियों की पुलिस के साथ जबरदस्त मुठभेड़ हुई थी, जिसमे सात पुलिसकर्मी शहीद हो गए थे और कई पुलिसकर्मियों को उन्होंने बंधक बना लिया है. उन अपहृत लोगों में मेरे पिता जी के दोस्त के दामाद भी हैं, जो लखीसराय के किसी थाने में कार्यरत थे.

जब से ये खबर मेरे कानो में आई है मैं यही सोच रहा हूँ कि ये क्या हो रहा है. इस घटना के करीब 2 दिन हो चुके हैं लेकिन इनलोगों का कोई पता भी नहीं है कि ये लोग कहाँ हैं. नक्सलियों ने इनके साथ किया क्या है. ये जिंदा भी हैं ये मर गए. बस इन 2 दिनों में सरकार से इनके परिजनों को एक ही चीज़ मिल रही है और वो है 'भरोसा', इसके अलावा सरकार इन मामूली अधिकारियों या आम आदमी के लिए कुछ नहीं कर सकती. क्यूंकि ये किसी गृहमंत्री जी के पुत्री नहीं है, ये एक मामूली से आम आदमी है. अगर कल इनके मरने कि भी खबर आ जाये तो सरकारी खजाने से 10 लाख की रकम दे कर सरकार सोचेगी कि हमारा काम हो गया. क्या यही इन्साफ है?

ये नक्सली दिन दहाड़े हमारी हत्याएं करते रहे पर हमारे केंद्रीय मंत्री समझते हैं कि वो भी इंसान हैं इसलिए इनसे बात-चीत करके मामला सुलझाएं. ये राजनेता ज़रा सोचें कि, जितने भी अधिकारी अपहृत हैं, उनके घरों का क्या माहौल होगा अभी? लेकिन ये क्यूँ सोचें, इन्हें क्या फर्क पड़ता है? इनकी राजनीति तो चमकनी चाहिए बस. जहाँ तक मुझे पता है कि जिस क्षेत्र में ये घटना हुई है उसके बारे में ख़ुफ़िया विभाग पहले ही रिपोर्ट दे चूका था कि यहाँ नक्सली कैंप चल रहा है और आशंका जताते हुए राज्य मुख्यालय को भी सतर्क किया गया था. पर शिथिल प्रशासन पर भारी पड़े नक्सलियों ने खून की होली खेलकर प्रशासन को उसकी औकाद बता दी. महत्वपूर्ण बात यह है कि हाल के दिनों में सरकार ने लखीसराय जिले को नक्सल प्रभावित घोषित किया है लेकिन इस जिले में नक्सलियों से लड़ने के लिए न तो संसाधन उपलब्ध है न पुलिस बल. जहाँ नक्सली इस मुठभेड़ के दौरान 100 से अधिक संख्यां में थे और साथ ही नक्सली एल.एम.जी. और ए.के.47 जैसे हथियारों से हमले कर रहे थे पर हमारे पुलिसबल के पास कौन से हथियार होते हैं? मेरा तो सरकार से बड़ा ही सीधा सवाल है कि जब ख़ुफ़िया विभाग कि रिपोर्ट इन जगहों के बारे में आ चुकी थी तो पूर्ण सुविधाएँ हमारे जवानों को क्यूँ नहीं मिली थी, क्यूँ उन्हें भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया था?

कुछ दिनों पहले हमारी केंद्रीय मंत्री ममता बनर्जी ने नक्सल के समर्थन में बयान देते हुए कहा है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है. साथ ही इनके समर्थन में हमारे एक और केंद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी का भी बयान आया है. क्या ये कुछ दिनों पहले CRPF पर हुआ नक्सली हमला भूल गए. जिसमे हमारे अनगिनत जवान मौत के घात उतार दिए गए. ज़रा हमारे मंत्रीगण बयान देने के पहले सोचें कि उस हमले में शहीद हुए जवानों के परिवार पर क्या बिता होगा यह सब सुनकर. वो यही सोच रहे होंगे कि "जिसने इनके घर का चिराग बुझा दिया ये सरकार उसी को बचाने में लगी है" और इधर इन पुलिस पदाधिकारियों के अपहरण हुए करीब दो दिन से भी ज्यादा हो चुके हैं, पर अभी तक हमारे माननीय मुख्यमंत्री जी का कोई बयान नहीं आया है. जबकि ये जांबाज़ पुलिस पदाधिकारी अपनी जान पर खेल कर इन नक्सलियों से लोहा लेने गए थे, ताकि क्षेत्र में शान्ति व्यवस्था कायम रह सके. इनके परिवार में कोहराम मचा हुआ है. इनलोगों के आंसू आँखों से सूख ही नहीं रहे हैं. पर सरकार क्या कर रही है कुछ पता नहीं चल रहा है. अब मुझे ऐसा लग रहा है कि सरकार ही अब नक्सालियों जैसी हरकत करने लगा है. अब तो सवाल ये आ गया है कि असल में नक्सली है कौन, ये जंगल में छिपे लोग या फिर सरेआम खादी पहन कर घुमने वाले ये नेता जो नक्सलियों का समर्थन करते हैं? अब सच बताऊँ तो मेरा विश्वास उठ चूका है इन मंत्रियों और सरकार से. आजतक नक्सलियों के समर्थन में बोलने वाले इन मंत्रियों का इस मामले में कोई बयान क्यूँ नहीं आ रहा है? इधर बिहार के मुख्यमंत्री जी भी चुप्पी साधे बैठे हुए हैं. इसलिए मैं इनलोगों कि कुशलता कि कामना ईश्वर से करता हूँ और इनके सकुशल वापसी कि दुआएं मांगता हूँ.

4 टिप्‍पणियां:

  1. है तो यह समस्या बहूत ही गंभीर| लेकिन इसका इलाज़ काफी सरल हो सकता है अगर हमारे नेता वोट बैंक के बारे में न सोचें |
    अगर इसका समाधान जल्दी न निकाला गया तो यह श्रीलंका की LTTE की समस्या की तरह भयंकर रूप ले सकता है |
    लेकिन एक तरह से हम सब इसके जिम्मेदार हैं | यह हमारा कर्त्तव्य है की हम वोट दें और सही लोगों को चुन के लायें |
    लेकिन जब हम अपना सबसे जरूरी कर्तव्य ही नहीं निभाते हैं तो दूसरों को दोष दे के क्या फायदा |
    हमें पहले खुद को सुधारना होगा तब ही जाके देश सुधर पायेगा |

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  2. अमित, बिलकुल सही कह रहे हो पर यहाँ सवाल उठता है कि हम वोट दें तो किसे दें. एक चोर है तो दूसरा डाकू. मुझे इसका एक ही उपाय नज़र आ रहा है कि हम युवाओं को अब आगे आना होगा अगर हमें देश बचाना है तो.

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  3. I agree with मैं भी नक्सलवाद या आतंकवाद के इस कुकृत्य की भर्त्सना करता हूँ. पर चिताम्बरम द्वारा की जा रही प्रयास को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता. केंद्रीय व राज्य सरकार की सामूहिक सैन्य कार्यवाही तथा दृढ इच्छा शक्ति से ही काबू पाया जा सकता है. इन कार्य में सरकार को जनता का सहयोग भी परिहार्य है. मेरा मानना है की हमारे देश के जितने बड़े क्षेत्र में इस कृत्य को अंजाम दिया जा रहा है, सरकार अपनी ख़ुफ़िया तंत्र को बिना मजबूत तथा बिस्वासजनक बनाये इस जंग को नहीं जीत सकती. बेशक ये सरकार की कठिन चनौती होगी. पर सैन्यबल तथा ख़ुफ़िया तंत्र के सामंजस्य के बिना ये लड़ाई जितना नामुमकिन है.

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  4. मैं आपकी बात से बिलकुल सहमत हूँ और पी. चिदंबरम के द्वारा किये जा रहे कदम की भी सराहना करता हूँ. पर कोई उन्हें खुल के काम करने दे तब तो? इन्ही के सरकार के मंत्रियों के विरोध के कारण इन्हें सब रोकना पड़ा. आज फिर से न्यूज़ चैनल पर रोते बिलखते अपहृत पुलिस वालों के परिवार को देख कर मेरा दिल पसीज गया. आज शाम नक्सलियों सरकार को दिए गए समय की मियाद भी पूरी हो गयी और कल १० बजे तक का एक और समय सीमा दी गयी है. पर सरकार की चुप्पी अभी तक नहीं टूटी है. क्या ये चुप्पी इन पुलिस वालों के जान जाने के बाद टूटेगी?

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