आज मध्य प्रदेश के अनुप पुर जिले में एक ऐसी घटना हुई, जिसने इंसानियत को झकझोर के रख दिया. अनूप पुर जिले के किसी गाँव में एक लड़की की उलटी और दस्त के कारण मृत्यु हो गयी. यह खबर वहां के पुलिस थाने तक पहुंची और थाने से फरमान आया कि लाश कि जांच थाने आ कर करवाओ. बेचारा लड़की का पिता गरीब था इसलिए बेटी की लाश ले जाने का कोई और साधन नहीं होने के कारण उसने अपनी सायकिल निकाली और कपडे के साथ कम्बल में लपेट कर लाश सायकिल के पीछे कैरिएर पर लाद कर ले गए. देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कोई सामान की गठरी ले कर जा रहा हो. थाने में प्राथमिक जांच के बाद लड़की के पिता से कहा गया की जिला अस्पताल जा कर लाश का पंचनामा करवा लो. पुलिस थाने से सिर्फ आदेश जारी हुआ इसके अलावा कोई सुविधा उन्हें मुहैया नहीं करवाई गयी. बेचारा लड़की का पिता अपनी बेटी की लाश वापस अपनी सायकिल के कैरियर पर लाद कर उसका पंचनामा करवाने जिला अस्पताल की तरफ निकल पड़ा. जिला अस्पताल वहां से करीब 25 किलोमीटर दूर था. करीब चार घंटे के सफ़र के बाद एक पिता अपनी बेटी की लाश का पंचनामा करवाने जिला अस्पताल पहुंचा. क्यूंकि सरकारी कारवाई के बाद एक पिता को बेटी की लाश वापस चाहिए उसका अन्तिम संस्कार करने के लिए. इसलिए वो अपनी बेटी के जनाज़े के साथ हो रही हर ज़िल्लत को बर्दाश्त करता रहा. वैसे ज़िल्लत बर्दाश्त करने के अलावा वो कुछ कर भी नहीं सकता था, क्यूंकि वो ग़रीब था.
अब यहाँ सवाल ये उठता है कि, क्या ग़रीब होना गुनाह है या फिर सविंधान इन्हें जीने का कोई हक नहीं देता है. मध्य प्रदेश सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चौहान खुद को ग़रीबों का सबसे बड़ा हितैषी बताते हैं. उनके अनुसार उनके यहाँ अधिकतम योजनायें ग़रीबों के हित के लिए ही है और सबसे बड़ी बात ये है कि कुछ दिनों पहले से मध्य प्रदेश सरकार वहां के पुलिसवालों को ट्रेनिंग दे रही है और एक बृहत् कार्यक्रम पुलिस वालों के लिए चला रही है जिसका मकसद है कि "मध्य प्रदेश पुलिस, जनता के समक्ष कैसे सभ्य और विनम्र रहे." अगर वहां के पुलिस की ये विनम्रता है तो ये क्रूर हो जाए तो आप ही अंदाजा लगायें कि आलम क्या होगा? मुझे कायदा कानून की ज्यादा जानकारी नहीं है पर कोई मुझे ये बताये कि अगर कही कोई हादसा हो जाये तो सरकारी संस्थाएं अगली कारवाई के लिए सुविधाएँ प्रदान करती हैं या नहीं या फिर इन्ही पुलिस वालों की तरह अपनी हैवानियत वाली शक्ल दिखाती रहती हैं? शायद यहाँ मेरा कहना ये गलत नहीं होगा कि हमारा सविंधान ये सुविधाएँ हैसियत देख कर देती है, अगर ये किसी मंत्री, विधायक या सांसद के साथ हुआ होता तो हमारा सरकारी तंत्र क्या ऐसे ही काम कर रहा होता?
इतने बड़े हादसे के बाद वहां मुख्यमंत्री जी प्रेस के सामने आये और आते ही उन्होंने इस पूरी घटना कि निंदा की और न्यायिक जांच का आदेश देते हुए वहां के ए. एस. आइ. को बर्खास्त कर दिया. मेरे विचार में ये खानापूर्ति कि अलावा कुछ भी नहीं था. आज हमारे देश के किसी भी हिस्से में कुछ होता है तो सरकार का मुखिया एक जांच समिति बना कर मामले को रफा दफा कर देता है. ये शायद इन ग़रीबों का दुर्भाग्य है कि इन्हें ऐसे ही प्रशासक मिलते हैं. मुझे ये पता नहीं आज जो कुछ भी हुआ उसे कैसे रोका जा सकता था पर साफ़ शब्दों में मैं कहना चाहता हूँ की जो भी हुआ वो इंसानियत को शर्मसार करने के लिए काफी था. यह दृश्य टी.वी. पर देखने के बाद से मेरी अंतरात्मा मुझे झकझोर रही है और बार बार यही आवाज़ आ रही है कि "हाय रे गरीबों कि सरकार"
पुलिस और सरकारी तंत्र से तो ऐसी ही आशा थी पर वहां आस-पास के लोग जो मूकदर्शक बने हुए थे उन्हें क्या कहना चाहिए? हम क्यूँ हर बात पर सरकार को दोष देते हैं? अगर हम बदलेंगे तभी सरकार की सोच बदलेगी. आज जब मैंने टी.वी. पर उस व्यक्ति को अपनी बेटी की लाश ले कर इधर उधर भटकते हुए देखा तो मुझे लगा की वहां आस-पास मौजूद लोगों की आत्मा बिलकुल मर चुकी है. ये दुनिया जानती है कि हमारे राजनेता और मंत्रियों के पास तो आत्मा नाम कि कोई चीज़ ही नहीं होती. लेकिन हम क्यूँ उनके नक़्शे कदम पर चल रहे हैं. ज़रा सोचिये वो बाप जिसने अपनी बेटी की डोली उठाने की सोची होगी, कभी उसने सोचा होगा कि उसकी बेटी कि विदाई खूबसूरत डोली में करेगा. वो आज अपनी बेटी के जनाज़े को ले कर इधर उधर भटक रहा है और ये पुलिस और प्रशासन इनका मज़ाक बना रही है. अब वक़्त आ गया है कि हम सरकार के भरोसे न रह कर खुद आगे आयें और इसके खिलाफ आवाज़ उठायें. ताकि इन ग़रीबों की डोली उठाने में तो हम सहयोग नहीं कर पाए पर इनकी अर्थी इनके घर से इज्ज़त के साथ उठे और इस ग़रीब कि बेटी कि विदाई इतनी ज़िल्लत से न हो...

aaj kai is yug main jab hum log jab saksham hone ka daawa karte hain us daur main agar ek pita par aisa kuch beete to dhik kaar hai aise prashasn par.Sujeet ji dhanyawaad ki aapne is blog ke madhyam se iss issue ko uthaya.Ab sochna ye hai ki iska solution kya banta hai ?
जवाब देंहटाएंFeeling sad and speechless :-(
जवाब देंहटाएंDear Sujeet ji aap ye jo blog likha hai ye sachi ghatnao par aadharit hai aisi bahut si baate hai jis par sara samaj aur hamari sarkar ko dhyan deni
जवाब देंहटाएंchahiye kahne ke liye to sabhi kahte hai ki ye nahi hona chahiye lekin khul kar koe samne nahi aata.Es me sabhi ko ek sath mil ke aage badna chahiye kyoki garib bhi ek manush hota hai wo janwar nahi. Hum to janwar se bhi pyar karte hai to apne jaise insan se kyo nahi...
bilkul theek kaha sujeet aj gareeb hona bhi gunah hai...aalm to ye hai ki insaan to door bhagwan bhi unka sath dene me sochta hoga...aj to insaan hi insaan ka dushman hai...na to is samaj me gareeb reh sakte hai or nahi mahilaye...poora system hi kharab hai to kya kar sakte hai....
जवाब देंहटाएंसुजीत ..मैं ये मानता हूं कि वैसे तो आप ने बिलकुल सही कहा कि हमारे देश में कानून हैसियत के हिसाब से बदल जाते हैं..और मुझे भी यह खबर पढ़कर काफी दुख हुआ...लेकिन यहां एक बात और गौर करने वाली है कि उस गरीब व्यक्ति के साथ जो भी हुआ वो क्या सिर्फ गरीबी की वजह से हुआ..मेरी राय है नहीं...कहीं ना कहीं अशिक्षा भी इस हृदयविदारक घटना के लिए उतनी ही जिम्मेदार है जितनी गरीबी है..आप सोचिये कि वो गरीब व्यक्ति अगर थोड़ा पढ़ा लिखा होता तो शायद उसके साथ इतना बुरा ना होता..मानता हूं कि इस बात पर कई टिप्पणियां आएंगी कि "गरीब आदमी रोटी कमाये या फिर पढे"...लेकिन कुछ तो होना चाहिए..ऐसे लोगों तक ये संदेश तो पहुंचना चाहिए कि शिक्षित होना मतलब सुरक्षित होना इसीलिए थोड़ा समय निकालो..बच्चों को पढ़ाओ ताकि कम से कम वो अपने अधिकारों से तो अनजान ना हों...वक्त आने पर मैं ये कोशिश जरुर करुंगा..क्योंकि अभी मैं ये कोशिश करने लायक काबिल बनने का प्रयास कर रहा हूं...मतलब अलख जगाने की कोशिश ।
जवाब देंहटाएंमुकेश कपिल
* आप सबों को टिप्पणी देने के लिए सहृदय धन्यवाद. जीतेन्द्र जी, आपको बहुत धन्यवाद पर इन लोगों को सबक सिखाने के लिए हमें आगे आना होगा.
जवाब देंहटाएं* भावना आपका निरुत्तर होना स्वाभाविक है. ऐसी घटनाएँ अक्सर हमें निरुत्तर कर देती हैं.
* सही कहा धीरज जी आपने कि अगर हम जानवरों से इतना प्यार करते हैं तो इंसान के से ऐसा बर्ताव क्यूँ? ज़रा सोचिये मेनका गांधी के दिल को चोट लगती है जब गली के आवारा कुत्तों को उठा के नगर निगम उठा ले जाती है. लेकिन उन्हें इस तरह कि चीजें नहीं दिखती हैं. इंसान कुत्तों कि ज़िन्दगी जिए तो परेशानी इन्हें नहीं होती लेकिन अगर कुत्तों को कोई परेशान न करे तो इनके दिल को तकलीफ पहुँचती है.
* जूही, भगवान् का भरोसा छोड़ कर अब हमें आगे आना होगा. जो है ही नहीं उनकी राह क्यूँ देखें हम. क्यूंकि अगर होते तो ऐसी घटनाएँ यहाँ होती ही नहीं
* मुकेश जी, मैं आपकी बात से बिलकुल सहमत हूँ. पर सरकार कुछ तो सोचे कि जिनके पास खाने तक के लिए २ वक़्त कि रोटी नहीं है शिक्षा कहाँ से लेगा. इनके लिए कुछ कार्यक्रम इन्ही सरकार को चलाना पड़ेगा, जिससे हर ग़रीब से ग़रीब इंसान को शिक्षा उपलब्ध हो और शिक्षा का अधिकार क़ानून बने...