आजकल मैं अपने गृह शहर पटना आया हुआ हूँ. यहाँ आ कर मैंने पाया की यहाँ चुनाव चर्चा अपने चरम पर है और देश की सभी मीडिया चाहे वो प्रिंट हो या इलेक्ट्रोनिक सभी बिलकुल मिनट मिनट की खबर जनता तक पहुंचा रहे हैं. आज सुबह ही मैंने जब समाचार पत्र देखा तो एक जबरदस्त न्यूज़ पर नज़र गयी कि "प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद्मश्री सी. पी. ठाकुर का इस्तीफा" और साथ ही उनका एक बयान था कि "मैं पार्टी के टिकट बटवारे से नाखुश हूँ. यहाँ भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं कि अवहेलना कि गयी है.मेरा बेटा विवेक ठाकुर भाजपा का समर्पित कार्यकर्ता है."
यह न्यूज़ पढने के ठीक बाद मेरी नज़र नीचे कोने में लिखी एक और न्यूज़ पर गयी जहाँ लिखा था कि " सी. पी. ठाकुर के पुत्र विवेक ठाकुर कांग्रेस से चुनाव लड़ेंगे." यह खबर पढ़ते ही मेरे मन में तभी से एक अंतर्द्वंद चल रहा है कि क्या आज के युग में "समर्पण और अवसरवादिता" एक दुसरे के पर्यायवाची हो गए हैं, क्या रामायण कि यह चौपाई सचमुच चरितार्थ हो गयी है कि. "प्रभुता में कछु दोष न गोसाईं" अर्थात समृद्ध व्यक्ति हमेशा सही होता है? एक तरफ अध्यक्ष महोदय कह रहे हैं कि बेटा पार्टी का समर्पित कार्यकर्ता है और दूसरी तरफ टिकट के लिए कांग्रेस से भी संपर्क साधे हुए हैं. अगर सी. पी. ठाकुर के व्यक्तित्व और उनका इतिहास देखें तो चिकित्सा के क्षेत्र में गोल्ड मेडल और कई ऐसे मेडल, अवार्ड लेने के बाद भारत सरकार से पद्मश्री अवार्ड से भी नवाज़े गए. पर आज का इनका बयान और क्रिया कलाप देख कर लगता है कि राजनीति अच्छे अच्छों का ईमान बदल देती है. शायद आज के युग में महात्मा गाँधी जी भी होते तो पुत्रवाद, परिवारवाद और अवसरवादी चरित्र से खुद को दूर नहीं रख पाते. क्यूंकि आज कि राजनीती है ही ऐसी. अब मुझे लग रहा है कि जे. पी. आन्दोलन के प्रणेता श्री जयप्रकाश नारायण को भगवान् ने पुत्र से वंचित इसलिए रखा था कि कहीं समय इनपर भी पुत्रमोह का दाग न लगा दे.
आज कल हर एक नेता समाज सेवा के थोथे दावे कर के अपने पुत्र और परिवार को आगे बढाते हुए समाजवाद कि बात करते हैं. इसका सबे बड़ा जीता जागता उदहारण हैं हमारे पूर्व केंद्रीय मंत्री श्री रामविलास पासवान. इनकी पार्टी लोजपा (लोकतांत्रिक जनशक्ति पार्टी) के अधिकतम उम्मीदवार इनके परिवार से ही हैं. कोई भाई है तो कोई समधी, कोई भतीजा है तो कोई दामाद. अब रामविलास जी के ननिहाल कि तरफ चलते हैं तो वहां पाएंगे कि इनके मामा श्री रामसेवक हजारी जिन्होंने नीतीश कुमार का दामन जद यु थाम के खुद विधान सभा चुनाव लड़ रहे हैं. साथ ही अपने पुत्र महेश्वर हजारी को सांसद बनाया और दुसरे पुत्र शशिभूषण हजारी के साथ अपनी बहु मंजू हजारी को भी चुनाव लडवा रहे हैं. परिवारवाद का विरोध करने वाले नीतीश कुमार इन्हें अपना मौन समर्थन दिए हुए हैं. लालू प्रसाद के तरफ चलें तो वहां भी वही हाल है. अब तो उन्होंने अपने बेटे को अगला उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया है. कैलाशपति मिश्रा का तो जातिवाद जग जाहिर ही है. क्यूंकि जब 1990 में पार्टी के अंतर्कलह के कारण रातों रात पार्टी अध्यक्ष पद से इन्दर सिंह नामधारी को हटा कर कैलाशपति मिश्रा को अध्यक्ष बनाया गया था तो, कैलाशपति मिश्र ने नामधारी के द्वारा जारी किये गए उम्मीदवारों के लिस्ट को बदल कर नयी लिस्ट ज़ारी कि. जिसमे से इन्होने नविन किशोरे सिन्हा और नन्द किशोर यादव जैसे लगातार जितने वाले प्रत्याशी को हटा कर अपने ख़ास लोगों को टिकट दिया था. वैसे कांग्रेस तो परिवारवाद के परंपरा कि जननी ही मानी जाती है.
ये तो सिर्फ एक बानगी है. अगर मैं पूरा व्योरा देने बैठ जाऊंगा तो शायद पन्नों कि कमी के साथ स्याही भी कम पड़ जायेगा. यहाँ का हर नेता समाजवाद का जीता जागता उदाहरण बन रहा है. आज के सन्दर्भ में मेरी परिभाषा इस समाजवाद के लिए कुछ और ही है. असल में ये है समाज-बाद, अर्थात हम पहले समाज बाद में. अब यहाँ सवाल यह आता है कि मतदाता क्या करे? ये शायद बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है. क्यूंकि हम आम मतदाता के लिए यह असमंजस का विषय है कि हम बाहुबलियों से किनारा करें या इस परिवारवाद से. मेरी समझ से अब वक़्त आ गया है कि एक वोट में कितनी शक्ति है ये जानने का और इन नेताओं को बाहुबलियों और परिवारवाद की राजनीती का सबक सिखाने का. जिससे हम इन राजनेताओं का मोहरा न बने और सुसंस्कृत देश और प्रदेश का निर्माण कर सकें.
hmmm, i like this article bt like to remind you one more thing that is , we are living in a Ghor Kalyug era...and appreciating that you are tring to wake almost dead bodies..
जवाब देंहटाएंu r right saras, but i know they`ll react someday thn u`ll see the change
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