दिल्ली चुनाव करीब है और इस वक़्त मुझे अन्ना हजारे का वो पुराना कुनबा याद आ रहा है. मंच के एक तरफ कुमार विश्वास हाथ में माइक ले कर गाते हुए "होठों पे गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो" और मंच के दूसरी तरफ किरन बेदी हाथों में तिरंगा ले कर लहराती हुई. मंच पर अन्ना हजारे साथ ही एक आरटीआई एक्टिविस्ट अरविन्द केजरीवाल बीच-बीच में आ कर जनसमूह का अभिवादन स्वीकार करते थे. आज भी इस कुनबे की पूरी तस्वीर आँखों के सामने यदा कदा आ ही जाती है, जिसमे ये सभी सरकार और भारत के प्रमुख दोनों पार्टियों के खिलाफ नारा बुलन्द करते थे.

लेकिन आज की तस्वीर बिलकुल बदली हुई सी मुझे नज़र आयी. जिस गोधरा पर किरन बेदी ने सैकड़ों सवाल उठाये थे आज वो उसी अमित साह के बगल वाली कुर्सी पर बैठ कर मुस्कुराते हुए बार-बार नरेन्द्र मोदी के तारीफ के पुल बाँध रही थीं. हाय रे राजनीति, इस राजनीति ने तो देश के एक तेज़-तरार्र, बेदाग़ महिला पर भी अपनी छाप छोड़ दी. तभी बड़े-बूढ़े कहते हैं कि "बेटा राजनीति बड़ी गन्दी चीज़ है, लोग इसमें अपना ईमान तक बेच खाते हैं."

अब देखिए अन्ना आन्दोलन के बाद कहानी थोड़ी फ़िल्मी होती चली गयी. केंद्र में बीजेपी ने सरकार बना ली है. रालेगण सिद्धि में अकेले बैठे हुए अन्ना और उनके सहयोगियों की आखिरी किस्त भी उनसे विदा ले चुकी है. आंदोलन से जुड़ी एक पूर्व महिला पत्रकार अपने पुराने सहयोगियों को 'एक्सपोज' करने पर आमादा हैं. 'देशसेवा' के जज्बे से लैस देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी भाजपा में शामिल हो गई है और भाजपा ने इन्हें राजधानी में होने वाले चुनाव का अघोषित रूप से सबसे बड़ा चेहरा बना चुकी है. साथ ही एक बड़ी बात कि अन्ना का आंदोलन अब दुर्गति को प्राप्त हो चूका है. मतलब साफ़ है, चार साल में कई सपनों के चार टुकड़े हो गए हैं. हालांकि अरविंद अपनी गलतियों, खामियों और पुराने साथियों के साथ अपने जीवन की संभवत: सबसे अहम लड़ाई लड़ रहा है.
लेकिन किरन बेदी ने उस अन्ना आन्दोलन के दौरान भाजपा के ऊपर कई सवाल उठाये थे, क्या मैं ये मानूं कि किरन बेदी को उनके सभी सवालों के सही जवाब मिल चुके हैं या फिर मैं ये मान लूं कि जब भी किसी फैक्ट्री में हड़ताल होती है तो हड़ताल के नायक, यानि यूनियन लीडर को फैक्ट्री का मालिक बुला कर उसे वहां का मेनेजर बना कर मामला समाप्त कर देता है. शायद यहाँ भी ये मामला इसी तरीके से समाप्त करने की कोशिश तो नहीं की गयी?
यहाँ समस्या ये नहीं है कि किरन बेदी भाजपा में शामिल हो गयी, दरअसल समस्या ये है कि कांग्रेस-भाजपा से लड़ते लड़ते ये भाजपा में शामिल हो गयीं. जिस भाजपा पर अपने ट्वीट के बौछारों से कई सवाल खड़े करती थीं, जैसे राजनीतिक पार्टी को आरटीआई में लाने का सवाल, गुजरात दंगे पर नरेन्द्र मोदी की भूमिका, लोकपाल-जोकपाल, गढ़करी कॉर्पोरेट कनेकशन. क्या अब आप अपने उसी सवाल से असहमत हैं? मैं इन्हें बस याद दिलाना चाहता हूँ कि ये खुद इन नेताओं को रंग बदलने वाले सियार कि संज्ञा दिया करती थीं, लेकिन अब ये खुद के लिए कौन से शब्द या विशेषण ढूंढ के रखीं हैं, ज़रा हमें भी बताएं.
जब अरविन्द ने आम आदमी पार्टी बनायी थी तो किरन बेदी ने अपने आप को बिलकुल गैर-राजनीतिक बताते हुए किसी पार्टी में जाने की संभावनाओं को भी खारिज़ किया था. फिर ये अचानक इन्हें क्या हो गया, कहीं मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली देख कर अपने सिद्धांतों से पलट तो नहीं गयीं? अन्ना आन्दोलन इसी राजनीतिक
व्यवस्था के खिलाफ एक आवाज थी जिस व्यवस्था में आज आपने अपना विलय किया है. अगर यही करना था तो कांग्रेस भी बुरी नहीं थीं लेकिन वहां जाने में तो रिस्क था. क्यूंकि एक तो उसने आपको दिल्ली का पुलिस कमिश्नर नहीं बनने दिया और दूसरा भाजपा लगातार जीत रही एक स्थापित पार्टी है. यहाँ मेहनत कम करनी पड़ेगी, अब इस अवस्था में आपको अवसरवादी ना कहूँ तो क्या कहूँ?
व्यवस्था के खिलाफ एक आवाज थी जिस व्यवस्था में आज आपने अपना विलय किया है. अगर यही करना था तो कांग्रेस भी बुरी नहीं थीं लेकिन वहां जाने में तो रिस्क था. क्यूंकि एक तो उसने आपको दिल्ली का पुलिस कमिश्नर नहीं बनने दिया और दूसरा भाजपा लगातार जीत रही एक स्थापित पार्टी है. यहाँ मेहनत कम करनी पड़ेगी, अब इस अवस्था में आपको अवसरवादी ना कहूँ तो क्या कहूँ?
किरन बेदी को अगर मुख्यमंत्री ही बनना था तो 2013 में आम आदमी पार्टी का मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनने का प्रस्ताव क्यों नहीं स्वीकार किया कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्हें आम आदमी पार्टी की सरकार बनने का कोई अंदेशा ही न रहा हो? एक स्थापित राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ नई पार्टी बनाकर चुनाव लड़ना एक तरह का संघर्ष है, इसमें बहुत कुछ दांव पर लगाना पड़ता है. लेकिन यहाँ बिलकुल साफ़ है कि अन्ना हजारे की पीठ में छुरा किसने घोंपा? अन्ना आन्दोलन के दौरान एक स्वामी अग्निवेश कांग्रेस से मिल गए थे तो दूसरी ओर आप अग्निवेश की तरह भाजपा से मिल गयीं. वैसे मैडम जी, आपको रामविलास पासवान जैसे सहयोगी और येदुरप्पा जैसे साथी की नई संगत मुबारक हो.





