गुरुवार, 6 सितंबर 2012

क्या ठाकरे की बपौती है मुंबई...?

पिछले दो-तीन दिनों से अखबारों और न्यूज़ चैनल पर बाल ठाकरे एण्ड कंपनी को बिहारियों के खिलाफ ज़हर उगलते हुए देख रहा हूँ. कल तो हद ही हो गयी, एक सिनेमा हॉल में भोजपुरी फिल्म चल रही थी और वहाँ राज ठाकरे के गुंडों ने हमला बोल दिया, जो पकड़ में आया उसे बुरी तरह पीट दिया. यह सब देख कर पता नहीं क्यूँ मुझे आज राहुल गाँधी याद आ गए और साथ ही उनका फ़रवरी 2010 का बिहार दौरा याद आ रहा है. जी हाँ, मुझे उसी राहुल गाँधी की याद आई है जो बिहार चुनाव के ठीक पहले पटना आये थे और सिंह गर्ज़ना करते हुए कहा था कि “बिहारियों को महाराष्ट्र जाने से कोई नहीं रोक सकता. अगर कोई इसकी हिम्मत भी करता है तो उसे करारा जवाब दिया जाएगा.” पर कहाँ गया वो कुरते की आस्तीन चढा कर शानदार भाषण देने वाला व्यक्ति जब फिर से बिहारियों पर हमले हुए. आज मराठियों के खिलाफ रोष प्रकट करने वाला राहुल गाँधी ठीक उसी तरह गायब है जैसे गधे के सर से सींग गायब होता है, आखिर ये कैसी लुका छिपी है? मुझे याद आता है जब राहुल से नाराज़ हो कर शिव सेना ने राहुल गाँधी के मुंबई घुसने पर पाबंदी लगा दी थी. पर राहुल गाँधी मुंबई आये लेकिन उसके पीछे जो पुलिस व्यवस्था की गयी थी वो देखने लायक थी. जी हाँ लग रहा था जैसे परिंदा भी पर नहीं मार सकता. राहुल गांधी के मुंबई पहुचने के ठीक पहले करीब 300 से ज्यादा शिव सैनिक गिरफ्तार किये गए थे. जबकि मुझे याद नहीं है कि जब भी बिहारियों या उत्तर भारतियों पर हमले हुए हैं उस वक्त 30 शिव सैनिक भी गिरफ्तार हुए हों. हाँ पुलिस वालों की ड्यूटी मुंबई के हर स्टेशनों पर ज़रूर लगा दी जाती है जो बिहारियों को ज़बरदस्ती ट्रेन में बिठा कर वापस भेजने का काम करती है. यहाँ सरकार का मतलब साफ़ है कि वो भी दबे जुबां से इन दंगाइयों की मदद कर रही है. अभी तक जितने भी हमले बिहारियों पर हुए हैं उनमे कभी भी मैंने किसी कांग्रेस के नेता को आगे आ कर बोलते हुए नहीं सुना है. जबकि महाराष्ट्र में इन्ही की सरकार है अगर चाहें तो ऐसे गुंडों को सबक सिखाने में इन्हें ज़रा भी वक्त नहीं लगेगा पर नहीं बोलेंगे क्यूंकि यहाँ चुनाव नजदीक है. वैसे कई प्रदेशों का भगोड़ा ठाकरे कुनबा जिसके मराठी होने का सबूत अभी तक किसी इतिहासकार को मिला ही नहीं है. कोई कहता है ये बिहार से आया है, कोई यू.पी. कहता है तो कोई एम.पी. अलग अलग अध्ययन से यही पता चला है कि महाराष्ट्र के पहले इनका अंतिम आश्रय स्थल मध्य प्रदेश का देवास जिला था और वहाँ से रोजगार की खोज में महाराष्ट्र आये थे. साथ ही यहाँ मैं एक और बात बताना चाहूँगा कि “ठाकरे” इनका टाइटल है ही नहीं. बाल ठाकरे के दादा उस वक्त के एक ब्रिटिश लेखक विलियम मेकपिस ठाकरे से बहुत प्रभावित थे और उसी का अंतिम नाम अपने बेटे केशव सीताराम ठाकरे उर्फ प्रबोंधंकर ठाकरे को दिया. मतलब साफ़ है कि ठाकरे कुनबा का यह नाम भी एक दो पीढ़ी ही पुराना है. अब यहाँ सवाल ये उठता है कि क्या बाल ठाकरे के दादा सीताराम सच में उस ब्रिटिश लेखक से प्रभावित हो कर अपने बेटे को एक नया टाइटल दिए या फिर पुरानी यादों को मिटा कर बच्चों की नयी जिंदगी, एक नए तरीके से, एक नए प्रदेश में शुरू करवाना चाह रहे थे जिसका फायदा आज ठाकरे कुनबा उठा रहा है. मराठी प्रेम तो इस तरह इनके अंदर भरा हुआ है कि हर चीज़ ये मराठी में ही करवाने की बात करते हैं. शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव् ठाकरे हमेशा मराठी बोलने और मराठी स्कूलों में पढ़ने पर जोर देता है पर इससे उसे खुद को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका बेटा कहाँ पढ़ रहा है. जी हाँ, आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि उद्धव ठाकरे का बेटा आदित्य ठाकरे जो अभी युवा शिवसेना के अध्यक्ष हैं वो मुंबई के महंगे और बड़े स्कूलों में से एक स्कूल में पढते थे. ये स्कूल था “बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल” जहाँ सभी बड़ी बड़ी बॉलीवुड की हस्तियाँ पढ़ा करती थीं और आज वहाँ उनके बच्चे पढ़ रहे हैं. अब आप ही देखिए ये है मराठी भाषा का नारा बुलंद करने वाला नेता. मेरा मानना है कि अगर आप मराठी स्कूलों की इतनी वकालत करते हो तो अपने बच्चों को वहाँ क्यूँ नहीं भेजते? भारत की आर्थिक राजधानी कही जाती है मुंबई. इसका मतलब साफ़ है कि यह मुंबई सभी भारतीयों का उतना ही है जितना मराठियों का. मुंबई इस ठाकरे की कोई बपौती नहीं है जो कि जब चाहे बिहारियों के खिलाफ फतवा ज़ारी कर दे. पूरे देश में मुंबई का नाम फिल्म उद्योग के कारण ही है और इस ठाकरे को मैं ये भी याद दिला दूं कि इस उद्योग में उत्तर भारतियों का ही सिक्का चलता है. यहाँ मैं सभी तो नहीं कहूँगा पर हाँ अधिकतम बड़े निर्माता निर्देशक उत्तर भारतीय ही हैं. अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो मुंबई में सिर्फ भोजपुरी फिल्म का व्यवसाय २०० से ३०० करोड का है. अब आप ज़रा सोचिये कि ये सिर्फ मुंबई में भोजपुरी फिल्म के व्यवसाय का आंकड़ा है और ये बिहारियों के खिलाफ ज़हर उगलते हैं. ये तो वही बात हो गयी कि “जिस थाली में खाया उसी में छेद कर दिया.” मतलब साफ़ है कि यहाँ आ कर हम आपको रोटी दे रहे हैं और आप हमें ही आँखें दिखा रहे हो. कोई बात नहीं कहा ही जाता है कि “अपने इलाके में कुत्ता भी शेर बनता है” जितना भौकना हो भौंक लो क्यूंकि हाथी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. पर बस डर एक ही बात का है कि जिस तरह से गुंडागर्दी ये वहाँ मचा रहे हैं कही फिर कोई राहुल राज ना पैदा हो जाए.

गुरुवार, 29 मार्च 2012

बिहार- सुशाषण फिर मीडिया पर भारी

22 मार्च 2012, हर बिहारी के लिए जैसे जश्न का दिन था. इसी दिन वर्ष 1912 में बंगाल से अलग होकर एक नयी पहचान बनाने को एक नए राज्य का निर्माण हुआ, जिसका नाम था बिहार. इसी 22 मार्च 2012 को बिहार निर्माण के 100 वर्ष पूरे हुए और पूरा प्रदेश जश्न के माहौल में डूबा हुआ था. शायद हर बिहारी के लिए ये गर्व का दिन था चाहे वो बिहार में रह रहे हों या फिर अप्रवासी हों. मैं भी अगले दिन अखबारों में जश्न की तस्वीरें देख रहा था और ख़बरें पढ़ रहा था. पर पता नहीं क्यूँ मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि मैं ख़बरें नहीं पढ़ रहा हूँ बल्कि बिहार सरकार का विज्ञापन देख रहा हूँ. ऐसा लगा रहा था जैसे बिहार के सभी अखबारों की ख़बरें प्रायोजित हैं. इसका कारण ये नहीं है कि अखबार ने सरकार के कार्यक्रम को बढ़ा-चढ़ा कर छापा था बल्कि कारण ये है कि मैंने एक और खबर उसी अखबार के पिछल्ले पन्ने पर देखा. जी हाँ, दैनिक हिन्दुस्तान के पेज न. 10 पर एक खबर छपी थी कि "आयकर टीम पूजा फ़ूड प्रोडक्ट की संपत्ति का आकलन करने में जुटी, करोड़ों रुपये के आयकर की चोरी." जब इस खबर को विस्तार से मैं पढने लगा तो पता चला कि "यह कंपनी किसी पूर्व विधान पार्षद का है और जब इनके ठिकानों पर छापेमारी हुई तो करीब साढ़े चार करोड़ की नगदी एक बोरे में ठूसी हुई मिली. कंपनी के पार्टनर्स का पटना में 50 से ज्यादा फ्लैट हैं और 12 करोड़ से ज्यादा अघोषित आय की जानकारी विभाग को मिली है. साथ ही कंपनी पार्टनर्स के लॉकर्स और कई बैंक अकाउंट का भी पता चला है जिसकी जांच अभी जारी है." पूरी खबर पढने के बाद मेरी उत्सुकता ज्यादा बढ़ गयी कि इतनी बड़ी खबर और अब तक की बहुत बड़ी बरामदगी है ये आय कर वालों की तरफ से, फिर भी ये अखबार के दसवें पन्ने पर क्यूँ है? एक बात और मैं यहाँ बता देना चाहता हूँ कि इस खबर की हेडलाईन चार कॉलम में थी पर खबर दो कॉलम में ही ख़तम हो गयी थी. फिर मैंने अपनी उत्सुकता शांत करने के लिए खबर की पड़ताल करने में जुट गया. लेकिन पड़ताल के बाद जो बातें सामने आई उसमे यही पता चलता है कि सच में प्रदेश की मीडिया पर सरकार का कितना दबाव है. अब आप भी सोचेंगे कि इस खबर को पहले पन्ने पर न छापने का दबाव सरकार क्यूँ देगी? तो अब आप भी सुनिए कि जिस व्यक्ति की पहचान मीडिया छुपाने की कोशिश कर रही थी वो हैं विनय कुमार सिन्हा और ये जनता दल यूनाइटेड के कोषाध्यक्ष भी रह चुके हैं. साथ ही सुशाषण बाबू मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के घनिष्ठ करीबियों में माने जाते हैं. अब मैं अगर बताऊँ कितने करीब तो आप ही समझ लीजिये कि मुख्यमंत्री निवास में आने के पहले तक अपने पटना प्रवास के दौरान सुशाषण बाबू इसी विनय कुमार सिन्हा के फ्लैट में रहते थे. हो सकता है कि आयकर विभाग द्वारा जप्त इन्ही 50 फ्लैट में से किसी एक में रहते होंगे और अगर जिसने मुख्यमंत्री का इतना ख्याल रखा हो तो ये खबर बिहार के किसी भी अखबार के पहले पन्ने पर तो बमुश्किल ही आ सकता है.

बिहार में अखबार पढने वाले 89% लोग ज्यादातर दो ही अखबार पढ़ते हैं, दैनिक हिन्दुस्तान और दैनिक जागरण. जिसमे कि दैनिक हिन्दुस्तान के दसवें पन्ने पर इस तरह से छापा गया कि लोगों को खबर समझ ही न आये और दूसरा अखबार दैनिक जागरण में तो मुझे ये खबर कही मिली ही नहीं. अब अगर इस सिलसिले को मैं आगे बढाऊँ तो आपको मैं अगले अखबार की तरफ ले जाता हूँ प्रभात खबर. ऐसा कहा जाता है कि यह बिहार का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ अखबार है. लेकिन इस अखबार में भी ये खबर नवें नंबर पर दिखा. खबर पढने के बाद ऐसा लगा कि जैसे एक छोटा सा हेडलाईन "बारह करोड़ की अघोषित आय" दे कर बस इसे निपटा दिया गया था. इसके बाद बांकी किसी हिंदी अखबार में मझे ये खबर नहीं दिखा. अब बात ये है कि सुशाषण बाबू कब तक कोशिश करते रहेंगे की उनके खिलाफत की खबर जनता तक ना पहुंचे. यहाँ बात सिर्फ सुशाषण बाबू की नहीं है यहाँ सवाल मीडिया के आचरण पर भी उठ रहा है. पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है पर अब बिहार में ऐसा कहा जा सकता है कि पत्रकारिता अब लोकतंत्र का नहीं सरकार का एक मजबूत स्तम्भ हो गया है. क्यूंकि ये अब सरकार को मजबूत बनाने में लगा हुआ है. हाल ही में राष्ट्रीय स्तर पर सबसे ज्यादा चर्चा में रहा 'कोयला घोटाला' को उजागर करने का दावा करने वाले इन अखबारों ने नीतीश कुमार की पार्टी और विनय कुमार सिन्हा के बीच के संबंधों पर पूरी तरह पर्दा डाल दिया. खैर इतना तो चलता है अगर आपका कोई घनिष्ठ प्रदेश का मुख्यमंत्री हो. क्यूंकि आपने भी सुना ही होगा कि "जब सइयां भये कोतवाल, तो दर काहे का" अब मैं एक और दिलचस्प बात आपलोगों को बताता हूँ, आज से छह साल पहले तक लोहिया, जेपी और बाद के दिनों में भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को सबसे चरित्रवान बताने वाले प्रभात खबर के प्रधान संपादक को अब सिर्फ नीतीश कुमार ही एक मात्र स्टेट्समैन नजर आते हैं. जाहिर है कि जब प्रधान संपादक की दृष्टि ऐसी होगी तो अखबार तो दृष्टिदोष का शिकार होगा ही. अब अगर दृष्टिदोष की बात चल ही गयी है तो आपको दैनिक हिन्दुस्तान के दृष्टिदोष का भी कारण मैं बता दूं. सुशाषण बाबू की पार्टी से सांसद एन. के. सिंह एच. टी. मीडिया के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में शामिल हैं. अब ऐसे लोग जब संचालन टीम में ही हो तो किसकी मजाल है कि सरकार के खिलाफ ख़बरें लिखने की हिमाकत करे. अब अगर इसके बाद भी किसी अखबार में खिलाफ की ख़बरें आ गयी तो बस दुसरे ही दिन से अखबार को मिलने वाले लाखों रुपये के विज्ञापन बंद. आप ही बताएं बिना धन के अखबार तो चल ही नहीं सकता क्यूंकि कहा गया है "धन बिन सब सुन्न." वैसे अगर आप सबों को याद हो तो आपातकाल के समय में इंदिरा गांधी ने अखबारों से थोडा झुकने को कहा था पर नीतीश काल में तो ये इनके आगे रेंगने लगे. अखबारों का नीतीश के आगे रेंगने के ढेरों उदाहरण आपको मिल जाएंगे. अभी ताज़ा उदाहरण तो मैंने दे ही दिया है ऐसे और भी कई मामलों में अखबारों ने खबर देने में पक्षपात किया है. गत दिनों फारबिसगंज के मामले को अखबार ने जिस तरह से इसे कवरेज़ किया था इससे वहां कि स्थिति बिलकुल साफ़ नज़र आती है. जंगलराज की समाप्ति के बाद आज भी बिहार में पुलिस अत्याचार, भ्रष्टाचार, हत्या, अपहरण, फिरौती, बलात्कार जैसी घटनाएं बड़े पैमाने पर घट रही हैं. पर राजद सरकार में ऐसी ख़बरें प्रमुखता से पहले पन्ने पर आती थी जिसे अब धकेल कर अंदर के पन्नों में भेज दिया गया है या फिर ये खबर बनती ही नहीं है. क्यूंकि इससे इनके सुशासनी दावों की पोल खुल जाएगी और अगर अखबार सरकार की पोल खोलना शुरू कर देंगे तो मुख्मंत्री सरकारी विज्ञापन देना बंद कर देंगे. अब सारा दोष हम पत्रकारिता को भी नहीं दे सकते क्यूंकि हम जनता समझते सब हैं लेकिन जवाब वक़्त आने पर देते हैं. ये राजनेता जनता को भगवान का दर्ज़ा देते हैं और बुजुर्गों ने कहा है कि "भगवान की लाठी में आवाज़ नहीं होती." इसलिए हमारा भी दिन ज़ल्दी आएगा जब हम बिना आवाज़ वाली वोट रुपी लाठी से हमला बोलेंगे.