सोमवार, 31 जनवरी 2011

तिरंगे की राजनीति...

तिरंगा शब्द हमारे ज़ेहन में आते ही एक अजीब सी स्फूर्ति बदन में आ जाती है. हमारा सर गर्व से ऊँचा हो जाता है साथ ही हमें फख्र होता है कि हम विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र के नागरिक हैं. हमसब के लिए हिन्दुस्तानी होना ही बहुत बड़ी बात है. साथ ही हमारा राष्ट्रीय ध्वज जिसके लिए जाने कितने लोग आज़ादी के दौरान वन्दे मातरम् बोलते हुए शहीद हो गए. हर 26 जनवरी और 15 अगस्त को अपने तिरंगे का ध्वजारोहण करके अपने शहीदों का सम्मान और अपनी आज़ादी का जश्न मनाते हैं. इस दिन हिन्दुस्तान के हर हिस्से में हर घर, हर शहर, हर चौक एवं चौराहे पर हम सब तिरंगा फहराते हैं और इसका अधिकार हर हिन्दुस्तानी को है. परन्तु हम 26 जनवरी को अपने ही देश के एक राज्य जम्मू कश्मीर के लाल चौक पर तिरंगा नहीं फहरा सकते. जी हाँ ये बिलकुल सही है, पर ऐसा क्यूँ है?

कुछ दिनों पहले भाजयुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुराग ठाकुर भारत भ्रमण करते हुए जम्मू कश्मीर पहुँच कर वहां लाल चौक पर झंडा फहराने का कार्यक्रम बनाया था. पर उन्हें और साथ ही सभी बड़े नेताओं को जम्मू कश्मीर कि सीमा पर ही गिरफ्तार कर लिया गया. यहाँ सवाल भाजपाई होने का नहीं है यहाँ सवाल है, कि हम लाल चौक पर झंडा क्यूँ नहीं फहरा सकते? प्रधानमंत्री का कहना है, कि जम्मू कश्मीर एक संवेदनशील राज्य है, पर ये संवेदनशीलता तब कहाँ चली जाती है जब इसी जम्मू कश्मीर के लाल चौक पर जहाँ कभी हरे रंग का इस्लामिक झंडा, तो कभी पाकिस्तानी झंडा फहराया जाता है. लेकिन हमारा राष्ट्रीय ध्वज फहराने में हिन्दुस्तान की सरकार को ऐतराज़ है. आप अपने ही देश किसी हिस्से में इसे प्रतिबंधित कैसे कर सकते हैं. यहाँ पिछले कई सालों तक 14 अगस्त को पाकिस्तानी झंडा फहराया जाता था और हमारी सरकार ख़ामोशी से अलगाववादियों के हौसले बुलंद किये. इन्ही कारणों से करीब यहाँ से 200 मीटर दूर CRPF के बंकर में तिरंगा नहीं लहराया जा सका. ये तो कुछ भी नहीं, श्रीनगर के कुछ इलाकों में अलगावादियों के हौसले इतने बुलंद है की वहां इन्होने बोर्ड तक लगाया हुआ है “Welcome to Chhota Pakistan” का. पर सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. पर उन्हें तब फर्क ज़रूर पड़ता है जब आप अपने ही देश के इस हिस्से में तिरंगा फहराते हैं.

वैसे आज ये बहुत बड़ा मुद्दा है कि हम लाल चौक पर झंडा नहीं फहरा सकते. पर भाजपा वालों की एक और मांग है, कि धारा 370 समाप्त करो वरना आन्दोलन होगा. अब यहाँ असल में सोचने की बात बात ये है कि भाजपा का सच में कश्मीर से कन्याकुमारी तक अखंड भारत का सपना है और सब जगह एक सामान क़ानून हो या फिर ये सिर्फ राजनीतिक एजेंडा बना कर ढोंग कर रहे हैं. क्यूँ जब इनकी सरकार लगातार 5 साल तक थी तब तो इन्होने 370 खत्म करने की कोई कवायद नहीं की? अगर सच में ये इमानदारी से इस मुद्दे के खिलाफ थे तो अपनी ये मांग अपनी ही सरकार में बखूबी पूरा कर सकते थे.पर नहीं जी, इन्हें तो राजनीतिक डपोरशंखी चाहिए जिससे मुद्दा बना कर ये चुनाव लड़ सकें. लाल चौक पर झंडा नहीं फहराने से हर हिन्दुस्तानी आहत ज़रूर है पर भाजपा की इस गन्दी राजनीति से ज्यादा आहत है.

पहले यहाँ सवाल ये उठता है कि क्यूँ इस सरकार को हरबार ये बोलने की ज़रूरत पड़ती है "कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है?" इसका उत्तर साफ़ है कि इनके ही सहयोगी नेशनल कांफ्रेंस जिसकी सरकार के मुख्यमंत्री जम्मू कश्मीर के हैं, उनका एक बयान आया था कि “जम्मू कश्मीर का विलय ही अपूर्ण है” अब जिस सरकार का सहयोगी ऐसे बयान देंगे तो क्या होगा. यहाँ एक बात और गौर करने वाली है, कि अगर आप रेडियो सुनते हैं तो कभी आल इंडिया रेडियो का प्रसारण हिंदुस्तान के किसी हिस्से का सुन लें और साथ ही जम्मू कश्मीर का सुन लें आपको फर्क पता चल जायेगा. पटना प्रसारण से वक्ता कहता है कि “ये आल इंडिया का पटना केंद्र है, लखनऊ के कहते हैं “ये आल इंडिया का लखनऊ केंद्र है. ऐसा हिन्दुस्तान के हर हिस्से में कहा जाता है पर जम्मू कश्मीर की बात अलग है वहां के वक्ता कहते हैं कि “ये रेडियो जम्मू कश्मीर है” इन्हें इंडिया नाम लेना भी गंवारा नहीं है. यहाँ तक की रेवेन्यु स्टाम्प पूरे भारत का एक है पर जम्मू कश्मीर में वहां का अपना रेवेन्यु स्टाम्प चलता है. फिर भी सरकार बार बार चिल्ला चिल्ला के कैसे बोल रही है कि “कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है” सिर्फ ये कहने से कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है से हमारी एकता और अखंडता बनी नहीं रह सकती? अगर अपने ही देश के किसी हिस्से में तिरंगा फहराने से शांति भंग होने का खतरा होने का संकेत अगर ये सरकार दे रही है तो धिक्कार है ऐसी सरकार पर. कश्मीर जैसे मुद्दे पर तो सरकार की हालत बिलकुल शुतुरमुर्ग वाली है कि जो तूफ़ान आते ही अपना सर रेत में छुपा लेता है ये सोच कर कि शायद आने वाला तूफ़ान यू ही टल जायेगा. सरकार को कश्मीर पर अपनी नीति पुर्णतः स्पष्ट करनी पड़ेगी वरना ये एक छोटा सा घाव एक दिन कैंसर का रूप ले लेगा.

बुधवार, 12 जनवरी 2011

बेटी का जनाज़ा...

आज मध्य प्रदेश के अनुप पुर जिले में एक ऐसी घटना हुई, जिसने इंसानियत को झकझोर के रख दिया. अनूप पुर जिले के किसी गाँव में एक लड़की की उलटी और दस्त के कारण मृत्यु हो गयी. यह खबर वहां के पुलिस थाने तक पहुंची और थाने से फरमान आया कि लाश कि जांच थाने आ कर करवाओ. बेचारा लड़की का पिता गरीब था इसलिए बेटी की लाश ले जाने का कोई और साधन नहीं होने के कारण उसने अपनी सायकिल निकाली और कपडे के साथ कम्बल में लपेट कर लाश सायकिल के पीछे कैरिएर पर लाद कर ले गए. देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कोई सामान की गठरी ले कर जा रहा हो. थाने में प्राथमिक जांच के बाद लड़की के पिता से कहा गया की जिला अस्पताल जा कर लाश का पंचनामा करवा लो. पुलिस थाने से सिर्फ आदेश जारी हुआ इसके अलावा कोई सुविधा उन्हें मुहैया नहीं करवाई गयी. बेचारा लड़की का पिता अपनी बेटी की लाश वापस अपनी सायकिल के कैरियर पर लाद कर उसका पंचनामा करवाने जिला अस्पताल की तरफ निकल पड़ा. जिला अस्पताल वहां से करीब 25 किलोमीटर दूर था. करीब चार घंटे के सफ़र के बाद एक पिता अपनी बेटी की लाश का पंचनामा करवाने जिला अस्पताल पहुंचा. क्यूंकि सरकारी कारवाई के बाद एक पिता को बेटी की लाश वापस चाहिए उसका अन्तिम संस्कार करने के लिए. इसलिए वो अपनी बेटी के जनाज़े के साथ हो रही हर ज़िल्लत को बर्दाश्त करता रहा. वैसे ज़िल्लत बर्दाश्त करने के अलावा वो कुछ कर भी नहीं सकता था, क्यूंकि वो ग़रीब था.

अब यहाँ सवाल ये उठता है कि, क्या ग़रीब होना गुनाह है या फिर सविंधान इन्हें जीने का कोई हक नहीं देता है. मध्य प्रदेश सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चौहान खुद को ग़रीबों का सबसे बड़ा हितैषी बताते हैं. उनके अनुसार उनके यहाँ अधिकतम योजनायें ग़रीबों के हित के लिए ही है और सबसे बड़ी बात ये है कि कुछ दिनों पहले से मध्य प्रदेश सरकार वहां के पुलिसवालों को ट्रेनिंग दे रही है और एक बृहत् कार्यक्रम पुलिस वालों के लिए चला रही है जिसका मकसद है कि "मध्य प्रदेश पुलिस, जनता के समक्ष कैसे सभ्य और विनम्र रहे." अगर वहां के पुलिस की ये विनम्रता है तो ये क्रूर हो जाए तो आप ही अंदाजा लगायें कि आलम क्या होगा? मुझे कायदा कानून की ज्यादा जानकारी नहीं है पर कोई मुझे ये बताये कि अगर कही कोई हादसा हो जाये तो सरकारी संस्थाएं अगली कारवाई के लिए सुविधाएँ प्रदान करती हैं या नहीं या फिर इन्ही पुलिस वालों की तरह अपनी हैवानियत वाली शक्ल दिखाती रहती हैं? शायद यहाँ मेरा कहना ये गलत नहीं होगा कि हमारा सविंधान ये सुविधाएँ हैसियत देख कर देती है, अगर ये किसी मंत्री, विधायक या सांसद के साथ हुआ होता तो हमारा सरकारी तंत्र क्या ऐसे ही काम कर रहा होता?

इतने बड़े हादसे के बाद वहां मुख्यमंत्री जी प्रेस के सामने आये और आते ही उन्होंने इस पूरी घटना कि निंदा की और न्यायिक जांच का आदेश देते हुए वहां के ए. एस. आइ. को बर्खास्त कर दिया. मेरे विचार में ये खानापूर्ति कि अलावा कुछ भी नहीं था. आज हमारे देश के किसी भी हिस्से में कुछ होता है तो सरकार का मुखिया एक जांच समिति बना कर मामले को रफा दफा कर देता है. ये शायद इन ग़रीबों का दुर्भाग्य है कि इन्हें ऐसे ही प्रशासक मिलते हैं. मुझे ये पता नहीं आज जो कुछ भी हुआ उसे कैसे रोका जा सकता था पर साफ़ शब्दों में मैं कहना चाहता हूँ की जो भी हुआ वो इंसानियत को शर्मसार करने के लिए काफी था. यह दृश्य टी.वी. पर देखने के बाद से मेरी अंतरात्मा मुझे झकझोर रही है और बार बार यही आवाज़ आ रही है कि "हाय रे गरीबों कि सरकार"

पुलिस और सरकारी तंत्र से तो ऐसी ही आशा थी पर वहां आस-पास के लोग जो मूकदर्शक बने हुए थे उन्हें क्या कहना चाहिए? हम क्यूँ हर बात पर सरकार को दोष देते हैं? अगर हम बदलेंगे तभी सरकार की सोच बदलेगी. आज जब मैंने टी.वी. पर उस व्यक्ति को अपनी बेटी की लाश ले कर इधर उधर भटकते हुए देखा तो मुझे लगा की वहां आस-पास मौजूद लोगों की आत्मा बिलकुल मर चुकी है. ये दुनिया जानती है कि हमारे राजनेता और मंत्रियों के पास तो आत्मा नाम कि कोई चीज़ ही नहीं होती. लेकिन हम क्यूँ उनके नक़्शे कदम पर चल रहे हैं. ज़रा सोचिये वो बाप जिसने अपनी बेटी की डोली उठाने की सोची होगी, कभी उसने सोचा होगा कि उसकी बेटी कि विदाई खूबसूरत डोली में करेगा. वो आज अपनी बेटी के जनाज़े को ले कर इधर उधर भटक रहा है और ये पुलिस और प्रशासन इनका मज़ाक बना रही है. अब वक़्त आ गया है कि हम सरकार के भरोसे न रह कर खुद आगे आयें और इसके खिलाफ आवाज़ उठायें. ताकि इन ग़रीबों की डोली उठाने में तो हम सहयोग नहीं कर पाए पर इनकी अर्थी इनके घर से इज्ज़त के साथ उठे और इस ग़रीब कि बेटी कि विदाई इतनी ज़िल्लत से न हो...

बुधवार, 5 जनवरी 2011

ये हैं जनप्रतिनिधि

कल एक जबरदस्त न्यूज़ जंगल में आग की तरह फैली कि, बिहार में पूर्णिया के विधायक राजकिशोर केसरी की एक महिला ने निर्मम हत्या कर दी. वैसे तो हत्या का मूल कारण जांच के बाद ही पता चलेगा लेकिन पहली नज़र में अगर देखें तो कुछ अजीब सी ही बातें सामने आती हैं, जो हमें बिलकुल स्तब्ध कर देती है. आरोपी महिला रूपम पाठक ने विधायक और उनके सहयोगियों पर यौन दुराचार का आरोप लगाया था. उसके बाद 18 अप्रेल 2010 को पुलिस अधीक्षक से मिल कर लिखित शिकायत दर्ज किया. अब यहाँ ऐसा प्रतीत हो रहा है कि समय पर कारवाई नहीं होने के कारण ही महिला ने ये दुस्साहस करने कि ठानी. अब यहाँ राजनीति शुरू हो चुकी है और आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है. लेकिन यहाँ अगर आम जनता का मत agar हम जानें तो पाते हैं कि रूपम पाठक के द्वारा न्याय के लिए अपनाये गए तरीके को गलत मानते हैं पर विधायक जी को भी साफतौर से बरी नहीं कर रहे हैं.

यहाँ सचमुच ये अब चिंतन का विषय हो गया है कि, कहलाते तो ये जनप्रतिनिधि हैं. लेकिन जनता के सामने कभी इनकी छवि साफ़ सुथरी नहीं होती. ऐसा नहीं है कि सभी जनप्रतिनिधि ऐसे ही हैं. परन्तु हमारे दिमाग में ऐसी ही छवि बनी हुई है. ये सिर्फ एक जगह कि हालत नहीं है. कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के एक बसपा विधायक पर भी बलात्कार का इलज़ाम लगा है और वो बचाव में बयान देते फिर रहे हैं. मैं उस महिला के कदम को बिलकुल सही नहीं मानता हूँ. पर ज़रा सोचिये कि कोई भी महिला इस तरह के अंजाम तक किस हालात में पहुँच सकती है. यहाँ मतलब साफ़ है कि, क़त्ल एक अन्तिम हथियार ही बचता है. जब क़ानून से आपका विश्वास उठ जाये तो शायद इसके अलावा कोई उपाय नहीं बचता है. वैसे इस तरह के हत्याकांड को समाज सिरे से नकारते हैं लेकिन कोई व्यक्ति करे तो आखिर क्या, जब हमारा सविंधान ही हमारी रक्षा न कर पाए तो?

इस हत्याकांड के बाद जब मैंने अपने उपमुख्यमंत्री श्री सुशील कुमार मोदी जी का बयान सुना तो मैं बिलकुल ही हतप्रभ रह गया. बिना किसी जांच के और बिना किसी परिस्थिति को जाने कोई ऐसा गैर जिम्मेदारी वाला बयान कैसे दे सकता है? सुशील कुमार मोदी ने राजकिशोर केसरी को क्लीन चिट देते हुए सारे आरोप उक्त महिला रूपम पाठक के सर मढ़ दिया. उन्होंने महिला पर आरोप लगाया कि "रूपम पाठक विधायक को ब्लैक मेल कर रही थी" परन्तु कोई ज़रा हमें ये बताये कि कोई भी इंसान किसी को ब्लैक मेल किस आधार पर कर सकता है. बचपन में सुनी हुई एक कहावत है कि "धुंआ वही उठता है जहाँ आग आग लगी रहती है" तात्पर्य ये है कि अगर वो विधायक को ब्लैक मेल कर रही थी तो ये बात यहाँ साफ़ है कि विधायक जी के खिलाफ कोई सबूत उनके पास था जिसके कारण सुशील कुमार मोदी ये कह रहे हैं कि महिला विधायक को ब्लैक मेल कर रही थी. मेरा राजनेताओं से अनुरोध है कि पहले वस्तुस्थिति को समझने की कोशिश करें फिर कोई बयान दें.

मैं मानता हूँ कि विधायक कि हत्या निहायत ही गलत कदम है. उस महिला का आरोप अगर सच भी है फिर भी ये तरीका बिलकुल गैरकानूनी और गलत है. पर हमें फिक्र इस बात कि होनी चाहिए कि उस महिला ने अब तक कोई सबूत नहीं दिए हैं फिर भी आम जनता विधायक के करतूत को सही मान रही है. हर कोई यही कह रहा है कि महिला झूठ नहीं बोल रही है. पर ज़रा हम विधायक के सहयोगियों को देखें तो उन्हें उस महिला पर आरोप लगाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है. क्यूंकि इस हत्या के बाद उनके सहयोगियों ने मार-मार कर उसे अधमरा कर दिया. क्या ये न्याय संगत था?

ऐसा लगता है कि हर पार्टी और हर प्रदेश में ऐसे लोग मौजूद हैं जो कही न कहीं किसी न किसी काण्ड में लिप्त हैं. पर पार्टी इन्हें बाहर निकालने या इनपर कारवाई करने का कोई व्यस्थित उपाय नहीं कर रही है. हर पार्टी को अपने विरोधी पार्टी में अपराधी तत्व नज़र आते हैं और उस वक़्त ये मसला सबसे अहम् हो जाता है पर एक बार अपने गिरेबान में झाँकने की भूल कभी नहीं करते. यहाँ सवाल सिर्फ माननीय जनप्रतिनिधि के अपराधिक या चारित्रिक मामले लिप्त होने का नहीं है, सवाल ये है कि अगर हमारे माननीय जनप्रतिनिधि ऐसे होंगे तो हम आम जनता से कानून पालन करने कि क्या उम्मीद कर सकते हैं...